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साथ ही रहेते हैं उसी प्रकार प्रभु के साथ अंगरक्षक की तरह सदा साथ रहे उसे प्रातिहार्य कहते हैं । तीर्थंकर प्रभुको केवलज्ञान होने पर उनके उत्कुष्ट पुण्य प्रभाव से देवता आते हैं और समवसरण आदि की रचना करते हैं जो प्रभु के साथ ही रहते हैं। ये आठ प्रातिहार्यों ईस प्रकार है -
अशोक वृक्षः सुरपुष्पवृष्टि दिव्य ध्वनिश्चामरमासनं च । भामंडलं दुंदुभिरातपत्रं सत् प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।
प्रातिहार्य अशोक वृक्ष
प्रातिहार्य पुष्पवृष्टि
प्रातिहा ३ दिव्यध्वनि
प्रातिहार्य चमर )
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॥ प्रातिहार्य ५
आसन
प्रातिहार्य ६ भामंडल
प्रतिहार्य७ प्रातिहाट
दुन्दुभि /
१.अशोक वृक्ष,२सुरपुष्पवृष्टि,३.दिव्य ध्वनि,४.चामर, .. ५.सिंहासन,६. भामंडल ७.देवदुंदुभि,८.तीनछत्र। समवसरण में बिराजकर प्रभु देशना प्रदान करते हैं । इस प्रसंग पर देवतागण समवसरण के केन्द्र में अशोकवृक्ष की रचना करते हैं । 'अ' निषेधार्थक है। जहां शोक न हो उसे अशोकवृक्ष कहते हैं । परमात्मा की देशना श्रवण करने हेतु जितने भी जीव बैठे होते हैं, उन सभी के शोक दूर हो जाते हैं । दुःख, शोक-ताप-संताप, खेद- विषाद कुछ भी नहीं रहते हैं और सभी जीव सुख का सुंदर अनुभव करते हैं।
गायन्निवालिविरुतै-नृत्यन्निव चलैर्दलैः।
त्वदगणैरिव रक्तोऽसौ, मोदते चैत्यपादपः। पवन से चलायमान पत्तों से मानों नृत्य कर रहा हो ऐसा यह वृक्ष शोभित होता है। इसकी सुगंध से आकृष्ट होकर आए हुए भ्रमर झंकार करते हो तब मानो अशोक
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