SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतिशय है। परमात्मा का ज्ञान-केवलज्ञान स्वरूप में अनंत ज्ञान होता है । समस्त जगत के तमाम पदार्थों को वे एक साथ जानते-देखते हैं । द्रव्य - गुण - पर्याय भेद से जानते -देखते हैं । तीनों काल का ज्ञान एक साथ होता है अर्थात् एक पदार्थ की भूत-भावी और वर्तमानकालीक अनन्त पर्याय एवं गुणों को एक साथ जान-देख सकते हैं। २. वचनातिशय :- वचन-वाणी। प्रभु की वाणी अत्यन्त मधुर होती है मानों गन्ने का रस हो । श्रवण करते ही हृदय में उतर जाय ऐसी कर्णप्रिय होती है । प्रभु अर्धमागधी (पाकृत) भाषा में देशना- (उपदेश) देते हैं । देवता मनुष्य, और तिर्यंचगति के पशु-पक्षी भी समवसरण में बैठकर देशना सुनते हैं और स्व-स्व भाषामें समजते हैं । प्रभु सर्वज्ञ होने के कारण सभी के मन की शंकाओ को जानते हुए प्रभु देशना फरमाते हैं अतः प्रत्येक जीवों की शंका का समाधान हो जाता है। ऐसी उत्कृष्ट प्रभु की वाणी होती है अतः इसे वचनातिशय कहते हैं । ३. अपायापगम अतिशय :- अपाय अर्थात् दुःख और अपगम अर्थात् नाश होना, चला जाना | जिनके सभी दुःख दूर हो गए हैं, क्योंकि दुःख के मूल में रहा हुआ मोहनीय कर्म सर्वथा नष्ट हो जाने से अब राग-द्वेष क्लेश कषाय रहे ही नहीं है । अतः दुःखो का अतिशय दुर हो जाना ही अपायापगम अतिशय है । ४. पूजातिशय :- अरिहंत परमात्मा इस अतिशय के कारण पूज्य-पूजनीय है। . तीनों ही लोक के जीव उनकी पूजा करते हैं,देवलोक के देवतागण-ईन्द्र, महेन्द्र भी प्रभु की पुजा करते हैं।कल्याणकादि के प्रसंग पर परमात्मा की भक्ति -उपासना करते हैं। जन्म के समय जन्माभिषेक महोत्सव,मेरुपर्वत पर अभिषेक आदि सब कुछ देवतागण करते हैं। मनुष्य भी प्रभु की भक्ति से पूजा करते हैं । तिर्यंच गति के पशु-पक्षी भी -पूजित मानते हैं, पूजन करते हैं । इस प्रकार तीनों ही लोक के जीवों से पूजित -वंदित होने से यह पूजातिशय कहलाता है । ये चार अतिशय अन्य प्रकार के हैं और ये केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात होते हैं जब कि प्रथम चार अतिशय जन्म से ही होते हैं। अष्टप्रातिहार्यः-प्रतिहारी अर्थात् अंगरक्षक राजा का अंगरक्षक जिस प्रकर सदा 421
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy