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के बाद अथवा कोई स्वयं को भगवान कहलाए और फिर भूल करे तो कैसे चल सकता है । यदि भूल करते हैं तो समझ लेना चाहिये कि अभी वे भगवान बने नहीं है, भगवान बनने के योग्य पात्र भी नहीं बने है । यहाँ भूल से पाप - दोष होता है अतः इस सीधी-सादी सरल व्याख्या के आधार पर सामान्य व्यक्ति भी भगवान की पहचान कर सकता है । बस, रत्तीभर भी पाप - दोष अथवा भूल यदि भगवान में दिखाई दे तो उन्हें भगवान मानने की आप भूल न कर बैठना ।
वीतराग परमात्मा के जीवन में तो भूल की रत्तीभर गंध भी संभव नहीं हैं। सर्व प्रथम वीतराग शब्द ही इस बात का विश्वास दिलाता है कि इनका मोहनीय कर्म . सर्वथा नष्ट हो चुका है, जिसके कारण भूल होने की जो संभावना थी वह मूल में
ही नष्ट हो चुकी है अतः कारण नष्ट होते ही कार्य की संभावना भी नष्ट हो जाती है । कारण के बिना कार्य बनता नहीं है । इन में भी वे तो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं । ऐसे वीतरागी भगवान में फिर तो मानसिक-वैचारिक व वाचिक भुल की भी संभावना नहीं है । ऐसे तीर्थंकर बने हुए अरिहंत परमात्मा में १८ प्रकार के दोष होते ही नहीं है । वे १८ प्रकार के दोष कौन से हैं उसका स्पष्ट उल्लेख श्री हेमचन्द्राचार्य महाराजा ने अभिधान चिंतामणी में फरमाया है।
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अन्तराया दानं - लाभं - वीर्यं -भोगोपभोगगाः । हासो त्यती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥७२॥
कामो मिथ्यात्वमज्ञानं, निद्रा चाविरतिस्तथा । रागो द्वेषश्च नो दोषोस्तेषामष्टादशाप्यमी ॥७३॥ १. दानान्तराय, २ . लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४ . उपभोगान्तराय ५. वीर्यान्तराय आदि पाँच प्रकार के अंतराय, ६. हास्य, ७. रति, ८. अरति, ९. भय, १०. शोक, ११. जुगुप्सा, १२. काम, १३. मिथ्यात्व, १४. अज्ञान, १५. निद्रा, १६. अविरति, १७. राग और १८. द्वेष । ये अठारह प्रकार के दोष तीर्थंकर प्रभु में होने की कोई संभावना ही नहीं है । इसीलिये ही अष्टादशदोषवर्जितो जिनः अर्थात् अठारह दोष से वर्जित जिन-जिनेश्वर कहे जाते हैं। जो जो तीर्थंकर भगवंत हुए हैं, होते हैं और होंगे वे सभी इन अठारह दोष से रहित थे, हैं और होंगे ।
अब प्रश्न यह उठता है कि दोष १८ ही क्यों ? क्या दोष इतने ही है ? दोष तो सैंकड़ो होते हैं । इसका मतलब यह नहीं है कि सैंकड़ो दोषों में १८ ही नहीं रहते हैं बाकी अन्य रहते हैं । ना, ऐसा नहीं, परन्तु इन अठारह दोषों में जगत के सभी दोषों का समावेश हो जाता है ये अट्ठारह तो मुख्य-मुख्य जातियाँ हैं, प्रकार है । इन
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