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प्रकारों के उपभेद के रूप में जगत के अन्य सभी दोष गिने जाते हैं अतः १८ दोष नहीं रहेंगे तो अन्य किसी दोष की संभावना रहती ही नहीं है । उदाहरण के लिये राग-द्वेष कामादि इतने बड़े दोष है कि इनके उपभेदों में अन्य सैंकडों दोषों का समावेश हो जाता है । जब यह मूल जाति ही नहीं रहेगी, तो फिर उपजातियाँ कहाँ से टिक पाएगी ?
इन अट्ठारह दोषों की दृष्टि से यदि सभी भगवानों की परीक्षा की जाए, तुलना की जाए तो पता चल पाएगा कि किन भगवानों में कितने दोष हैं और कौन से भगवान बिल्कुल दोष रहित निर्दोष हैं । जिस प्रकार कसौटी पर परीक्षा करने से सोने और पित्तल के भेद का पता चलता है, उसी प्रकार १८ दोषों की कसौटी पर परीक्षा करने से सदोष और निर्दोष भगवानों के भेद का पत्ता चलेगा। अतः सभी भगवान एक ही हैं, सभी भगवान समान है, यह तो नामों का भेद हैं। ऐसा कहनेवालों को इस कसौटी से भेद समझमें आ जाएगा ।.
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बारह गुणों के धारक श्री अरिहंत :
गुण के धारक ही गुणी कहलाते हैं । गुणी का आधार ही गुणों पर है । जैन शासन गुणवाची- गुणपरक धर्म है । नवकार महामंत्र भी व्यक्तिवाची नहीं बल्कि गुणवाची महामंत्र है । इसीलीये नवकार महामंत्र में एक भी व्यक्ति - परमेष्ठि का नाम
नहीं है । अरिहंतादि सब गुणवाची पद है । अतः प्रत्येक परमेष्ठि भगवंतो की गुण संख्या पदों के अनुसार भिन्न-भिन्न बताई गई है । (१) अरिहंत के १२ गुण, (२) सिद्ध भगवंत के ८ गुण (३) आचार्य महाराज के ३६ गुण (४) उपाध्याय महाराज के २५ गुण, (५) साधु महाराज के २७ गुण. इस तरह पंच परमेष्ठि भगवंतो के कुल मीलाकर १०८ गुण होते हैं ।
इस तरह पंच परमेष्ठि भगवंतो की गुण संख्या कही है । इन में अरिहंत परमात्मा के १२ गुण कहे गए हैं, ये दो विभाग में है -
४ अतिशय
४ अतिशय
अरिहंत के १२ गुण
+ ८ प्रातिहार्य
= १२ गुण
तेषां च देहोऽद्भूतरूपगन्धो, निरामय स्वेऽमलोज्झितश्च श्वासोऽजगन्धो रुधिरामिषं तु, गोक्षीरधारा धवलं ह्यविस्नम्
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