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जाएगा, तब फिर तीर्थंकर का धर्मतीर्थ प्रवर्तन का कार्य आदि कौन करेगा? शरीर
नहीं रहेगा तब क्या कर सकेगा ? अतः चारों ही अघाति कर्म रहते हैं, फिर भी तीर्थंकरत्व अथवा अरिहंतपने को कहीं भी किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचती है बल्कि ऊपर से शुभ पुण्य के घर की प्रकृतियाँ रहकर लाभ ही कराएगी।
सदेही - विदेही भगवान :
जैन दर्शन में अरिहंत और सिद्ध इन दोनों को देव तत्त्व में गिने हैं । इन में अरिहंत परमात्मा देहसहित हैं शरीरधारी-सशरीरी हैं फिर भी ४ घाति कर्मों से मुक्त कहलाते हैं । वे सदेही - सशरीरी होने पर भी संसार से सर्वथा मुक्त है, अब पापादि की प्रवृत्ति न करे अथवा कर्मबंध न करने आदि के पच्चक्खाण कर लिए हैं जब कि सिद्ध भगवंत सर्व कर्म रहित हैं अतः विदेही - अशरीरी हैं । इस प्रकार देखने जाएँ तो अरिहंत और सिद्ध भगवंतो में कोई विशेष अन्तर नहीं है फक्त शरीर के कारण ही भेद है, शेष अन्य समान है । दोनों का केवलज्ञान, केवलदर्शन, वीतरागता तथा अनंत शक्ति आदि संब समान हैं, किसी में भी न्यूनाधिकता नहीं है, अतः देहसहित - सशरीर अवस्थावाले को अरिहंत भगवान कहा है । ये ही तीर्थ प्रवर्तन, तीर्थ स्थापनादि सभी कार्य करते हैं । ये ही भगवान ईश्वर - परमेश्वर कहलाते हैं । इनको शुद्ध प्रवृत्ति करने में अब ऐसे कोई भी कर्मों का बंध नहीं होता है जिसके कारण इन्हें आगामी भव धारण करना पडे । ये ही अरिहंत भगवंत अपने स्वयं के आयुष्य के आधार पर टिके हुए शेष ४ अघाति कर्मों का क्षय करके अंत में अशरीरी सिद्ध बन जाते हैं - मोक्ष में स्थिर हो जाते हैं । सिद्ध भगवंत भी केवलज्ञानादि जो कुछ . भी प्राप्त करते हैं वह सब कुछ यहाँ से सशरीरी अवस्था में ही प्राप्त करके जाते हैं । वहाँ मोक्ष में जाने के पश्चात् कुछ भी प्राप्त करने का नहीं रहता है ।
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अष्टादशदोषवर्जितो जिनः
भूल करे वह भगवान कहलाए या भगवान हो वह भूल करें ? इन दोनों ही प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट न कार ही होना चाहिए । दोनों प्रकार से गलत ही है । भूल करे उसे भगवान कहने में, अतिव्याप्ति होती है, क्योंकि भूल करने वाले तो करोड़ो लोग हैं, सभी भूल करते हैं । कहते हैं कि To Err is Human “मानव मात्र भूल ने पात्र" सभी भूल करते हैं, तो फिर क्या सभी को भगवान कहें ? नहीं, कदापि नहीं । भूल करना यह भगवान बनने की प्रक्रिया नहीं
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है । इसी प्रकार भगवान होने
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