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-जरा -मरण- के चक्र से सर्वथा मुक्त ऐसे अरथान्त भगवंतो को नमस्कार हो ।
नमो अरहयद्भ्यः - अरहंताणं से अरहयद्भ्यः भी पाठ मिलता है। ईसमें 'अ' निषेधवाची है, और “रह गतौ” रह धातु गत्यर्थक है। इससे अरहयद्भ्यः रूप बनता है । रागादि भाव सर्वथा निकल जाने से क्षीण हो जाने से उनका (राग-द्वेषका) निषेध जिनमें हैं ऐसे अरिहंत भगवंतो को नमस्कार हो । दुसरे प्रकार से अर्थ करने में 'रह त्यागे' अर्थ में धातु लेने से -प्रकृष्ट राग-द्वेष के कारणभूत मनोहर अथवा अमनोहर, प्रिय तथा अप्रिय पदार्थ प्राप्त होने पर भी जो अपना वीतरागता का सहज स्वभाव छोडते नहीं है ऐसे अरिहंत परमात्मा को नमस्कार हो ।
इस प्रकार 'नमो अरिहंताणं के पाठों की व्याख्या भिन्न भिन्न अर्थों में होती है। 'अरि 'स्वरुप आत्मा के जो राग द्वेपादि कर्मशत्रु है, उनका हन्त -हनन- नाश करने वाले अरिहंतो को नमस्कार किये गए हैं । अरिहंताणं अर्थात् कर्मारिहन्तृभ्यः अर्थ होता है। स्पष्ट कहा है कि -
अट्टविहं पि य कम्मं अरिभ्य होइ सयलजीवाणं। तं कम्ममरिहंता अरिहंता तेण वुच्चंति ॥ आ. नि . गा.९१०॥
आठ प्रकार के कर्म जो सभी जीवों को सतानेवाले-शत्रु रुप है ऐसे कर्मरुपी शत्रुओं का हनन- नाश करनेवालो को अरिहंत कहते हैं, उन्हें नमस्कार हो । यह अरिहंत शब्द योगरूढ की आत्मा के लिये ही घटित होता है और अरिहंत कहने से रूढ अर्थ से जिनेश्वर भगवंतों का ही ग्रहण होता है, अतःसिध्द भगवंत आठ कर्मों के नाशकर्ता- कर्मों से रहित होने पर भी अरिहंत शब्द से सिध्दों का ग्रहण नहीं होगा । परन्तु शासन स्थापना द्वारा जो स्व-पर के अष्ट कर्म का नाश करने का उपदेश नियमित रूप से देते हैं ऐसे अरिहंतो अर्थात् तीर्थंकर भगवंतो को नमस्कार हो ।
नमोअरूहंताणं- अरहंताणं के स्थान पर अरूहताणं भी पाठ -भेद है। अरूहंताणं की संस्कृत छाया अरोहद्भ्यःहोती है। इसमें भी 'अ' निषेधार्थक है। 'रूह'धातु उगने के अर्थ में है। रूह से उगना अर्थात् पुनःजन्मादि ग्रहण करना । 'अ' सर्वथा निषेधक सामने है अतःउगने का निषेध करता है। जिनके कर्मरुपी बीज सर्वथा जलकर क्षीण -नष्ट हो चुके हैं उनके अब पुनःजन्म मरणादि कहाँ से हो सकते हैं? जन्म-मरणादि तो राग-द्वेष के फलस्वरुप कर्म से ही होते रहते है। अतः अरूहंताणं, अरोहद्भ्यः
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