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________________ अर्थात् जन्म -मरण का सर्वथा अभाव जिनमें हैं वे | स्पष्ट कहते हैं कि दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङकुरः कर्म बीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः।। ' अर्थात् जैसे जले हुए बीज में से अंकुर फुटते नहीं है वैसे ही कर्म रुपी बीज के जल जाने से जन्म -मरणादि रूप संसार का सर्वथा अभाव सिध्द होता है। कारण का सर्वथा नाश हो जाने से कार्य का भी सर्वथा नाश हो ही जाता हैं अतः अरुहंताणं -अरोहंताणं का अर्थ भी इस प्रकार सुसंगत है। उपरोक्त दोनो अर्थ जैन धर्म के सिध्दान्त को स्पष्ट कर देते हैं । सर्वथा सर्व कर्म का नाश करके जो तीर्थकर, अरिहंतपरमात्मा एक बार मोक्ष में चले गए हो उन्हे पुनः संसार में आने का, जन्म लेने का रहता ही नही हैं अतः जैन धर्म में 'संबवामि युगे युगे' की बात संभव ही नहीं है. | जैनेतर धर्मों में भगवान पुनः आते हैं, जन्म लेते हैं अतः यह सिद्ध होता है कि वे कर्म से युक्त है, कर्म से सर्वधा मुक्त नहीं है अतः जैन दृष्टि से वे अरिहंत अरुहंतादि पद से वाच्य नहीं होते हैं । उपरोक्त सभी पाठों में से 'अरिहंताणं' पाठ ही नवकार महामंत्र में प्रचलित - प्रसिद्ध है, रूढ है । इस पाठ का परिवर्तन करके अन्य पाठ रखा नहीं है । हेमचन्द्राचार्य महाराज ने पृषोदरादि की तरह अरिहंत पद के तीन सामासिक अर्थ किये हैं - १) अरिहननात् २) रजोहननात् ३) रहस्याभावात् । इस अर्थ में अरिहंत पद का प्रयोग किया है । अर्हन्त का अरिहंताणं अर्थ करके अरिहननात् कहा है। संसार रूपी गहन वन में मोहादि शत्रुओं के हनन करनेवाले होने से अर्हन्त भी अरिहंत ही है । रजोहननात् अर्थात् जिस प्रकार बादल सूर्य को आच्छादित कर देते हैं वैसे ही कार्मण वर्गणा रूप कर्मरज ने आतमा को आच्छादित कर दिया है उन कर्मरज को दूर करनेवाले अरिहंत है अर्थात् उन्होंने चारों ही घाति कर्म दूर कर दिये हैं ऐसे अरिहंत भगवंत रहस्याभावात् अर्थात् केवलज्ञान के कारण जिनसे कुछ भी छिपा हुआ नही है, गुप्त, रहस्यात्मक नहीं है अर्थात् सब कुछ ज्ञानगम्य है प्रकट है। इस प्रकार अन्य भी पाठ मीलते हैं और उन पाठों के भी भिन्न-भिन्न अर्थ निकलते हैं और उन अर्थों के अनुसार भी अरिहंत भगवंतो की भगवतता सिद्र होती है इसीलिए ही अरिहंत शब्द ही सर्वाधिक उपयुक्त है। ........... अरिहंत और सिद्ध का भेद - ___ अरिहंत शब्द सभी पाठों में श्रेष्ठ पाठ के रूप में स्वीकार्य हैं, यही सर्वग्राह्य .....414 -
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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