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अरहंताणं' पद का संस्कृत टीका में टीकाकार ने नमो अर्हद्भ्यः -दर्शाया है । (२) नमो अरहोन्तीः , (३) नमोअरथान्तर्यः (४) नमोअरहद्भ्यः-इसप्रकार चार प्रकार से संस्कृत छाया की है। दूसरा पाठ है-नमो अरूहंताणं इसका संस्कृत छाया में 'नमो अरोहर्व्यः' किया है- तीसरा पाठ है- 'नमो अरिहंताणं' का संस्कृत छाया में 'नमो अरिहंतेभ्यः' होता है । 'नमो अर्हद्भ्यः ' पाठ का संक्षिप्त अर्थ करते हैं। अर्हत् शब्द का चतुर्थी बहुवचन अर्हद्भ्यः होता है । “अर्ह-मह पूजायाम्" धातुकोष के इस नियम के अनुसार 'अर्ह' धातु है जिसका अर्थ होता है- पूजा के योग्य । पूजा के अर्थ में अर्ह धातु का प्रयोग हुआ है और उससे पूजा के योग्य- पूज्य अर्हत् कहलाते हैं। दुसरे अर्थ में 'सिद्धि गमन योग्य ‘ऐसे अरिहंत भगवंतो को नमस्कार किये हैं । अरिहंत भगवंत निश्चित रुप से तद्भव मोक्षगामी ही होते हैं, वे अवश्य ही सिध्द होते हैं, वे अनिवार्य रुप से चरम शरीरधारी होते हैं।
नमो अरहोन्तेभ्य :- 'नमो अरिहंताणं' की संस्कृत छाया में दुसरे प्रकार से 'नमो अरहोन्तेर्थ्यः' पाठ भी बनता है। यह ‘अरहोन्तर्' शब्द की चतुर्थी विभक्ति का बहुवचन रूप है। मूल सामासिक शब्द अरहोन्तः है। इसमें तीन शब्दो के समास बना हुआ हैं -अ -रहस्-अन्तर् । इसमें 'अ' निषेधवाची है। 'रहस्' अर्थात् एकांत और अन्तःका अर्थ मध्य भाग होता है। इसका पूर्ण अर्थ मध्य भाग विद्यमान नहीं है ऐसे अरिहंतो को नमस्कार है। स्पष्टीकरण करते हुए बताते हैं कि रहस्' अर्थात् एकांत रूप गुप्त प्रदेश और अंतर् अर्थात पर्वत की गुफा आदि का मध्य भाग । प्रभु सर्वज्ञ होने से जगत की अनन्तवस्तुओं में से कोई भी वस्तु उनसे गुप्त नहीं होती है अर्थात् प्रभु के ज्ञान में से जगत् की कोई वस्तु छुट नहीं सकती है अतः प्रभु के लिये कुछ भी गुप्त, एकांत रहता. ही नहीं है ऐसे सर्वज्ञ अरहोन्तेर्यःनमस्करणीय है ।
नमो अरथान्तेभ्य : -अरहंताणं प्राकृत पाठ का संस्कृत पाठ अरथान्तेभ्यः भी होता है। 'अ' यहां निषेधार्थक है । अ-रथ - अन्त - अरथान्त शब्द बना । इसका चतुर्थी बहुवचन अरथान्तेभ्यः हुआ है। यहाँ 'रथ' शब्द का अर्थ उपलक्षण से सर्व प्रकार का परिग्रह लिया है और अंत शब्द से विनाश और उपलक्षण से जरा अवस्था आदि समझें। पूर्ण अर्थ इस प्रकार होगा- रथ अर्थात् सर्वप्रकार का परिग्रह और अंत अर्थात् जन्म -जरा -मृत्यु का सर्वथा अभाव है अर्थात् सर्व प्रकार से मुक्त तथा जन्म
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