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इस व्याख्या के आधार पर इतना ही समजना है कि -अरिहंत अवश्य ही भगवान कहलाते हैं परन्तु जीतने भगवान उतने अरिहंत नहीं। इसीलिये निश्चित रूप से जो अरिहंत भगवान है उन्हें ही नमस्कार करना है ।
भगवान शब्द के अर्थ:
भगवान शब्द की उत्पति संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'भग ' शब्द को 'मतुप् प्रत्यय' का वान् जुड़ने से हुई है। भगवान शब्द के १४अर्थ कल्पसूत्र में इस प्रकार दिये गए हैं - ( १ ) सूर्य ( २ ) ज्ञान (३) माहात्म्य ( ४ ) यश ( ५ ) वैराग्य (६) मुक्ति (७) रूप (८) वीर्य (९) प्रयत्न (१०) ईच्छा (११) लक्ष्मी (१२) धर्म (१३) ऐश्र्वर्य और (१४) योनी । ईन चौदह अर्थों में बुरे प्रकार के अर्थ भी है। स्त्री की योनी के लिये भी 'भग ' शब्द का प्रयोग होता है। एक स्त्री भी अपने आपको भगवान कह सकती है यहां अर्थ होगा- भग (योनी) वाली। जिनको भगंदर का रोग हुआ हो और वह भी स्वयं को भगवान कहे तो भी उचित है परन्तु ऐसे अर्थ को छोडकर दुसरे जो बारह अर्थ है उस अर्थ में भगवान शब्द हमें मान्य है । जैसे भगवान अर्थात् ज्ञानेवाले, माहात्म्यवाले, यशवाले- यशस्वी, वैराग्यवान्, मुक्तिवाले, रुपवान्, वीर्य (शक्ति) वान्, प्रयत्नवान्, ईच्छावाले, लक्ष्मीवान्- (शोभायुक्त) धर्मवान् और ऐश्र्वर्यवान् आदि अर्थों में भगवान शब्द का प्रयोग हो सकता है, जबकि अरिहंत शब्द तो मात्र राग- द्वेष रुपी अरिओं का नाश - हनन करनेवाले के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है, अतः अरिहंत शब्द ही भगवान- ईश्वर की अपेक्षा अधिक व्यापक और विस्तृत शब्द है। इस में अर्थ गांभीर्य भी है ।
'अरिहंताणं' के स्थान पर अन्य पाठ :
४५ जैनागमों में अग्रणी पंचमांग श्री भगवतीसूत्रमें श्री नवकार महामंत्र के मंगलाचरण की व्याख्या करते हुए पूज्य अभयदेव सूरि महाराज फरमाते हैं कि
अरिहंते वंदण नमसणाणि अरहंति पूयसक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण वुच्चन्ति ।।
वंदन - नमस्कार के योग्य, पूजा और सत्कार के योग्य, सिद्धिगमन योग्य जो होते हैं वे अरहंत कहलाते हैं। उन अरहंत भगवंतो को हमारा नमस्कार हो । प्राकृत में भी भिन्न भिन्न शब्दों - पाठों का प्रयोग होता है- १, नमो अरहताणं २, नमो अरुहंताणं ३, नमो अरिहंताणं इस प्रकार भिन्न भिन्न पाठान्तर भी प्राप्त होते हैं। इन में 'नमो
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