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________________ अरिहंत शब्द को ही प्रचलित रखा है। अरिहंत शब्द सभी प्रकार से अधिक उपयुक्त तथा सार्थक लगता है।" नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं शक्रेन्द रचित शक्रस्तव(नमुत्थुणं) सूत्र की यह प्रथम प्रारंभिक संपदा है। इसका अर्थ होता है “नमस्कार हो अरिहंत भगवंतो को" इस संपदा की ललित विस्तरा नामक टीका में काफी सुंदर विवेचन किया गया है । संपदा के शब्दों के क्रम रचना भी कितनी सार्थक है उदाहरण के लिये 'नमुत्थुणं भगवंताणं अरिहंताणं इस प्रकार संपदा की रचना करते हैं तो 'नमस्कार हो भगवान अरिहतों को' ऐसी अर्थध्वनी उठती है । अब तर्क के आधार पर कौन सा क्रम सार्थक है- इसकी कसोटी करें । तर्क का स्वरूप कुछ ऐसा बनता है- जो जो अरिहंत होते हैं वे भगवान होते हैं या जो जो भगवान होते हैं वे अरिहंत होते हैं? निश्चयपूर्वक कहना?उदाहरण के लिये -जहाँ जहाँ धुंआ होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है या जहाँ जॅहा अग्नि होती है वहाँ वहाँ धुंआ होता है ? इस में तर्क युक्ति का प्रयोग करना पडता है। किसका किसके साथ अविनाभाव संबंध है, यह देखना पडता है। अतः जहाँ धुआँ होता है वहाँ अग्नि अवश्य होती है परन्तु जहाँ अग्नि होगी वहाँ धुंआ होगा भी सही और नहीं भी होगा जैसे तपाया हुआ लोहपिंड पडा हो तो उसमें अग्नि है परन्तु धुंआ नहीं होता है। अतः अग्नि धुंए के बिना रह सकती है जब कि धुंआ अग्नि के बिना संभव ही नहीं हैं । बस, इसी उदाहरण को सामने रखकर अरिहंत और भगवान शब्द के बीच रहा अविनाभाव संबंध देखें । जो जो भगवान है वे निश्चित् रूप से अरिहंत ही है, ऐसा हम द्रढतापूर्वक नहीं कह सकते हैं क्योंकि इस जगत में भगवान तो अनेक हैं। वर्तमान काल में भी कई ऐसे हैं जो स्वयं को भगवान कहलाते हैं,परन्तु वे अरिहंत नहीं होते हैं, क्योंकि उन्होंने राग-द्वेष - आदि का क्षय नहीं किया वे राग-द्वेष ग्रस्त हैं अतः राग-द्वेषयुक्त जो है वे भगवान शब्द से वाच्य बन सकते हैं, परन्तु अरिहंत शब्द से नहीं, क्योंकि अरिहंत तो सर्वथा राग-द्वेष रहित- वीतराग होते हैं अरि अर्थात् राग-द्वेषादि शत्रु और हंत अर्थात् हनन-नाश करनेवाले-अरिहंत । इसीलिए ही शब्दो का क्रम भी तर्कयक्ति संगत ही रखा गया है । जो जो अरिहंत होते हैं उनको अरिहंत न भी कहा जा सके अर्थात जीतने भगवान होते हैं वे सब अरिहंत नहीं भी हो सकते हैं । इसीलिये नवकार में 'नमो अरिहंताणं' पद का प्रयोग हुआ है। 'नमो भगवंताणं' पद का प्रयोग भी क्रिया होता तो भी चल सकता था परन्तु इन पदो में इतने व्यापक -विशाल अर्थ समाहित नहीं होता है बल्कि ये बहुत ही संक्षिप्तार्थ वाले हैं जबकि अरिहंत पढ़ बहुत ही व्यापक विस्तृत अर्थमय है। अतः -
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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