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सौधर्मेन्द्र पल भर कुपित होकर उसकी कोई हत्या करने हेतु कोई तैयार हुआ हो - ऐसी शंका करके चारों ओर दृष्टि दौड़ाता है, फिर भी सिंहासन चलित रहता है। तब अवधिज्ञान का उपयोग करने पर उसे स्पष्ट हो जाता है कि यह कोई उपद्रव नहीं, बल्कि त्रिलोकनाथ तीर्थंकर परमात्मा का जन्म हुआ है । यह जानकर इन्द्र महाराजा हरिणगमेषी नामक अंगरक्षक देव को बुलाते हैं | सुघोषा घंट बजवा कर समस्त देव लोक में प्रभु के जन्म की बधाई के समाचार प्रसारित किये जाते हैं, जिससे सभी देवी - देवतागण प्रभु के जन्माभिषेक महोत्सव मनाने हेतु मेरू पर्वत पर आएँ ।
इस ओर दसों ही दिशाओं में रहने वाली ५६ दिग्कुमारिकाओं के आसन चलित होते हैं । अपना शाश्वत आचार जानकर दिग्कुमारिकाएँ प्रभु के जन्म-स्थल पर आती हैं, भिन्न भिन्न दिशाओं से आगत आठ आठ दिग्कुमारिकाएँ जन्म संबंधी शुचि कर्म करती हैं, माता और पुत्र की देहशुद्धि करती हैं, नाभिनाल छेदादि कार्य करती हैं, केलिगृह की रचना करती हैं, सभी कार्य सम्पादित कर फिर आनन्दोत्सव मनाती हैं, नृत्य गान करती हैं और अपना आनंद व्यक्त कर स्व-स्थान पर लौट जाती हैं।
मेरुपर्वत पर अभिषेक :
इस और इन्द्र महाराजा राजभवन में आते हैं माताभयभीत न हो इस के लिये माता को अपना परिचय देते हैं, फिर माता को अवस्वापिनी निद्रा धीन बना देते हैं एक और बच्चे जैसा पुतला बनाकर माता के पास रखते हैं, फिर प्रभुको करसंपुट में ग्रहण करते हैं । तीन लोकके नाथ तीर्थंकर परमात्मा की भक्ति का संपूर्ण लाभ मुझे प्राप्त हो इस भाव से सौधर्मेन्द्र महाराजा अपने पाँचरुप करते हैं (१) एक रुप से खुद प्रभु को कर संपुट में ग्रहण करते हैं (२) दूसरे रुप से प्रभु के पीछे छत्र धारणकर चलते हैं, (३) तीसरे रुप से प्रभु के आगे वज्र चलाते हुए चलते हैं और (४-५) चौथे तथा पाँचवे रुप में प्रभु के दोनो ओर चँवर डुलाते हुए चलते हैं ।
सैकडों देवतागण आए हुए होते हैं इन सभी से परिवृत होकर इन्द्र प्रभु को लेकर मेरु पर्वत पर जाते हैं । वहाँ अति पांडुकबला शिलापर प्रभु को अपनी गोद में लेकर बैठते हैं । दोनों ओर वृषभादि का रुप धारणकर अपने शृंग में से प्रभु पर ६४ इन्द्र और समस्त उपस्थित देवतागण अभिषेक करते हैं । प्रभु के समक्ष सर्व प्रकारकी भक्ति करके नृत्य - गानआदि करने के पश्चात इन्द्र महाराजा प्रभु को
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