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होते हैं । राजा इन सभी दोहदों - मनोरथों की संतुष्टि - पुर्ति करवाते हैं ।
तीर्थंकर भगवंत की मातुश्री गर्भ का पालन - पोषण उत्तम प्रकार के आहारादि से करती हैं, जिससे गर्भ की पुष्टि भली प्रकार हो सके । प्रभु माता के गर्भ में भी ज्ञान युक्त होते हैं । गर्भस्थ प्रभु सब कुछ जानते हैं । वर्तमान विज्ञान अभी तक यही डींग हाँक रहा था कि गर्भ में जीव ही नहीं होता, फिर कहा कि कुछ महिनों तक नहीं होता और बाद में आता है - आदि बाँते निरर्थक सिद्ध होती हैं । अभिमन्यु चक्रव्यूह का ज्ञान गर्भकाल में ही सीखकर आता हैं । श्री तीर्थंकर भगवान को सारा ही ज्ञान गर्भ में ही होता है । इसीलिये श्रीमहावीर प्रभु निष्कंप हो गए थे । मनोगत संकल्प करके कि माता- पिता की विद्यमानता में संसार छोडकर दीक्षा ग्रहण नहीं करूँगा - ऐसी प्रतिज्ञा गर्भ में ही करते हैं यह सब कब संभव हो सकता है ? गर्भ में जब ज्ञान हो तभी संभव है।
प्रभु का जन्म कल्याणक : - _ साढे नौ माह का गर्भकाल होता है, तब प्रभु का जन्म होता है । सभी ग्रह उच्च स्थान पर स्थित होते हैं, तब शुभ नक्षत्र के साथ चंद्र का योग होता है । ऐसे शुभ दिन करण और योग में बाधा और पीड़ा रहित मातुश्री प्रभु को जन्म देती है। प्रभु के जन्म समय सर्वत्र आनन्द ही आनन्द का साम्राज्य होता है । हेमचंद्राचार्य महाराज वीतराग स्तोत्र में वर्णन करते हुए कहते हैं कि
“नारका अपि मोदन्ते यस्य कल्याण पर्वसु । पवित्रं तस्य चरित्रं को वा वर्णयितुं क्षमः" ॥
सातों ही नरक भूमियों में जहाँ सर्वत्र अंधकार का बोलबाला होता है और नारक - जीव भयंकर वेदना में कष्ट और पीड़ा में रिबाते हों, त्रस्त हो गए हों, जहाँ आनन्द सुख आदिकी रति भर भी संभावना न हो-ऐसे नरकों में भी परमात्माके जन्म के समय प्रकाश छा जाता है । दो घटिकाओं के लिए तो अदभृत आनन्द छा जाता है । यह सब प्रभु के जन्म को आभारी है, अतः जन्म को भी जन्म कल्याणक महोत्सव कहते हैं । राजमहल में भी सर्वत्र खुशियों की लहर फैल जाती है ।
दैविक जन्मोत्सव :
तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन कर के प्रबल पुण्योदय से प्रभु के जन्म समय स्वर्ग में बिराजे हुए सौधर्मेन्द्र का सिंहासन चलायमान होता है । इस संकेत से
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