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पूर्व ऐसे कोई भारी अशुभ कर्म यदि उपार्जित कर लीये हों तो, वह जीव नरक गती में भी जाता हैं और नरक की वेदना..... अशुभ कर्मो का फल भोगता हैं, वहाँ से निकलकर चरम भव में आकर भी तीर्थंकर बनते हैं । जैन धर्म - जैन दर्शन कर्मसत्ता का स्वरूप सर्वोपरि मानता है । कृत कर्म सभी को भोगने ही पडते हैं, फीर वह आत्मा सामान्य आत्मा हो अथवा विशिष्ट कक्षा की - परमात्मा बननेवाली हो, पूर्व कृत कर्म तो सभी को भुगतने ही पडते है, इस में किसी का बस नहीं चलता।
___ मगधाधिपति सम्राट श्रेणिक (राजा बिंबिसार) राजाने तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन करने से पूर्व शिकारआदि पापमय वृत्तियों में आसक्त बनकर हिंसाचार आदि दोष-सेवन करने के कारण अशुभ नरक गती योग्य अशुभ पापकर्म का उपार्जन किया था । उस कर्मोदय के कारण श्रेणिक राजा के जीव को नरक गति में जाना पड़ा । इस बात को हुए मात्र ढाई हजार वर्ष के आसपास की ही अवधि बिती है । नरक गती में से निकलकर वे चरम भव में आकर आगामी चौबीसीमें पद्मनाभ स्वामी नामक प्रथम तीर्थंकर बनेंगे ।
. बीच में जो समयावधि है वह बहुत लम्बी है - . (१) अवसर्पिणी का पंचम आरा
२१,००० वर्ष का है। (२) अवसर्पिणी का छट्ठा आरा
२१,००० वर्ष का है। (३) उत्सर्पिणी काल का छट्ठा आरा (नीचेसे) भी २१,००० वर्ष का है । (४) उत्सर्पिणी काल का पांचवा आरा (नीचेसे) भी . २१,००० वर्ष का है।
ईस प्रकार कुल चार आरों का समय ८४,००० वर्ष का है।
इतने लम्बे काल तक श्रेणिक राजा का जीव प्रथम रत्न प्रभा नामक नरकभूमि में नारक के रूप में ही रहेगा । प्रथम नरक में १ सागरोपम जितना उत्कृष्ट आयुष्यकाल है । सागरोपम अर्थात् असंख्य वर्षों का काल, जब कि ८४,००० वर्ष तो बहुत ही कम है । प्रथम नरक में न्यूनतम आयुष्य काल ही १०,००० वर्ष का होता है । इस से कम तो कोई भी जी ही नहीं सकता है ।
__ इतने ८४,००० वर्षो तक श्रेणिक राजा का जीव प्रथम नरक में यह आयुष्य काल भुगत कर स्वकर्म स्थिति के अनुसार वहाँ से निकलकर अंतिम भव में आएँगे और पद्मनाभस्वामी के रूप में आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर बनेंगा ।
अर्थात् तीर्थंकर नाम कर्म बाँधा हुआ जीव मनुष्य अथवा तिर्यंच गति में चरम भव के उत्तरवर्ती भव में जन्म नहीं लेता । यह दो गति में नहीं जाता है, मात्र
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