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'अरिहंत परमात्मा का विशुद्ध स्वरूप
अरिहंत, अरुहंत, अरोहंत, अर्हन्, अहँ, अरहंत ऐसे जिन, जिनेश्वर, तीर्थंकर, वीतराग, सर्वज्ञ परमात्मा के परमेष्ठि स्वरूप को
____ अनंतानंत नमस्कारपूर्वक , सकल जिनागमों में शिरोमणि स्वरूप पंचमांग श्री भगवती सूत्र में महामंत्र के मंगलाचरण की व्याख्या करते प्रथम 'नमो अरिहंताणं' पदकी व्याख्या व्युत्पत्ति करते हुए नवांगीवृत्तिकार पूज्यपाद अभयदेव सूरि महाराज फरमाते हैं कि - .
अरहंति वंदण नमसणाणि अरहंति पूयसक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहा अरहंता तेण वुच्चंति ।।
_ वंदन और नमस्कार करने योग्य, पूजा और सत्कार के योग्य तथा सिद्धिगमन के योग्य जो होते हैं वे अरहंत कहलाते हैं, ऐसे अरहंत भगवंतों को नमस्कार हो।
चरम भव प्रवेश :- .
- 'अरिहंत परमात्मा का शुद्ध स्वरूप' से हम आत्मा - परमात्मा बनने की दिशा में आगे बढ़ते हैं सम्यक्त्व प्राप्त करके आगामी भव करता करता आगे बढ़ता हुआ जीव - अंतिम भव से पूर्व के तीसरे भव में बीसस्थानक तपकी आराधना करता करता ‘सवि जीव करूं शासन रसी' की भावना से भावित करता हुआ तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित करता है, अर्थात आगामी तीर्थंकर अरिहंत भगवान बनने का निर्णय करता है । बीच में एक देव का भव करके इस नियमानुसार उस जन्म में से मृत्युपाकर स्वर्ग की देवगति में जाता है. देवलोक में देव के रूप में वह जन्म लेता है, जैसा कि भगवान पार्श्वनाथ नौवे भव में दसवे प्राणत नामक देवलोक में जन्म लेकर देवता बने थे, भगवान महावीर स्वामी का जीव भी छब्बीसवें भव में दसवे प्राणत नामक देवलोक में देव ऋद्धिवाले देव बने थे और वहाँ २० सागरोपम का आयुष्य था ।
यह आवश्यक नहीं है कि सभी अन्तिम से पूर्व के भव में देवलोक में ही जाएँ और देवता ही बनें - ऐसा भी नियम नहीं हैं । तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करने से
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