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________________ शुद्ध स्वरुप को हमें जानना - मानना है, तो अपने अल्प ज्ञान से उनका सच्चा स्वरुप हम कैसे जान पाएँगें ? इसीलिये कहा है कि 'जं जं जिणेहिं भासियाईं तमेव निः संकं सच्चं' । सर्वज्ञ केवली भगवंतो के द्वारा प्ररुपित तत्त्व ही सच्चे हैं ऐसी बुद्धि ही सुम्यग् दर्शन है - सच्ची श्रद्धा है । जो जो जिनेश्वर भगवंतों ने कहा है वह शंका रहित सत्य ही है - ऐसी मान्यता धारणा ही सच्चे सम्यक्त्व की पहचान है । ऐसी मति वाले को ही सच्चा श्रद्धालु समझें । जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ है, जो अनंतज्ञामी सर्वज्ञ प्रभु बने हैं उन्होंने आत्मा से लगाकर मोक्षपर्यन्त सभी पदार्थों का स्वरुप अपने अनंतज्ञान से देखकर जो प्ररुपणा की है, पदार्थों का स्वरुप दर्शाया है उन्हीं तत्त्वों को, उन्हीं स्वरुप में जानने - मानने की अपनी निश्चत्मति ही सच्ची श्रद्धा है । जिन तत्त्वों पर सर्वज्ञ की मुद्रा अंकित न हुई हो ऐसे तत्त्वों को मानना मिथ्यात्व की व्याख्या में आ जाता है, सर्वज्ञ के मुद्रांकित पदार्थों को उन्हीं स्वरुप में स्वीकार करने में जबकि सम्यक्त्व की पहचान है । सम्यक्त्वशाली आत्मा, परमात्मा, कर्म, धर्म, लोकपरलोक, पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष आदि सभी तत्त्वों को सच्चे शुद्ध स्वरुप में जैसे हैं वैसे ही मानेगा । अतः जो वस्तु जिस स्वरुप में है उसे उसी स्वरुप में जानना मानना ही सम्यक्त्व है - इससे विपरीत नहीं । सम्यक्त्व एक प्रकार की सत्य दृष्टि है । सत्य स्वरुप को स्वीकार करना ही सम्यक्त्व है । अनादिकाल के संसार का परिभ्रमण अज्ञान-मिथ्याज्ञान के कारण ही हुआ है । अब सच्चे सम्यग्ज्ञान सम्यग श्रद्धा (दर्शन) से आत्मा का विकास साधते हुए प्रगति करनी है । आध्यात्मिक विकास साधना है । देव गुरु-धर्म से श्रद्धा का सम्यक्त्व : या देवे देवता बुद्धिः गुरौ च गुरुतामति ॥ धर्म धर्मधीर्यस्य सम्यक्त्वं तदुदीरितम् ॥ जो यथार्थ में सर्वज्ञ वीतरागी देवाधिदेव परमात्मा है, उन्हें ही भगवान मानने की बुद्धि, इसी प्रकार त्यागी - तपस्वी, ज्ञानी गीतार्थ और कंचन कामिनी के त्यागी ३६ गुणों से शोभायमान, गुण युक्त को ही गुरु मानना - ऐसे गुरु में ही गुरुत्व की बुद्धि रखना और सर्वज्ञ केवली भगवंतो द्वारा कथित तत्त्वों में श्रद्धा रखना उनकी आज्ञा उनके उपदेश को ही धर्म मानना - उस सर्वज्ञोपदिष्ट धर्म में ही धर्म बुद्धि रखना - इसी का नाम सम्यक्त्व कहा गया है । इस प्रकार भी भावार्थ 382
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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