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और उनके वास्तविक अर्थों की सच्ची श्रद्धा का नाम ही सम्यग् दर्शन है । जगत में दृश्य अदृश्य अनेक पदार्थ हैं । उन पदार्थों को हम अपने ज्ञान के निर्णय बनाकर जानते हैं, जानते समय हम अपनी मनगढंत रिती से भी जानने वाले नहीं, जैसे तैसे भी मानने वाले नहीं । वास्तव में जो पदार्थ जैसे हैं, जिस स्वरुप में हैं उसी स्वरुप में जानने और स्वीकार करने चाहिये । जो जैसे हैं उनसे विपरीत प्रकारसे मानते हैं तो पुनः मिथ्यात्व के ही चंगुल में फँसते हैं, क्यों कि मिथ्यात्व तो विपरीतता के भाव में है, जब कि सम्यक्त्व सच्चे शुद्ध स्वरुप की स्वीकृति में है। जिनकी श्रद्धा करनी है उन मूल तत्त्वभूत पदार्थों का परिचय देते हुए कहते हैं
जीवऽजीवा पुण्णं पावाऽऽसव संवरो य निज्जरणा ।
बन्धो मुक्खो य तहा, नव तत्ता हुंति नायव्या ॥१॥ (१) जीव, (२) अजीव, (३) पुण्य (४) पाप (५) आश्रव, (६) संवर, (७) निर्जरा, (८) बंध और (९) मोक्ष - ये नौं तत्त्व जानने योग्य हैं । दृश्यमान पदार्थ तो नेत्रों के सामने प्रत्यक्ष हैं, परन्तु प्रत्यक्षभूत पदार्थों को जानने - मानने में भी मतभेद हो जाता है, भ्रम हो सकता है, तब फिर अदृश्य तत्त्वों को तो जानने अथवा मानने की बात ही कहाँ रही । आत्मा (जीव), अजीव, पुण्य, पापादि तत्त्व प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होते, मोक्ष हमें अपनी आँखों के सामने नहीं दिखता - वह अदृश्य तत्त्व है । इन सभी पदार्थों को जिस रुप में हैं उसी यथार्थ स्वरुप में मानने या जानने में सम्यक्त्व रहा हुआ है उसके बिना नहीं । श्रद्धा होनी चाहिये पर कैसी? अँध श्रद्धा नहीं, बल्कि सच्ची श्रद्धा होनी चाहिये और सच्ची श्रद्धा तो सच्चे ज्ञान से ही संभव है ।
जीवाइ नव पयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं ।
भावेण सहहतो, अयाणमाणेवि सम्मत्तं ॥ जीवादि नौ पदार्थों को जो सम्यग् प्रकार से जानता है, उसे सम्यक्त्व होता है, और भावपूर्वक जो इन पर श्रद्धा करता है उसे सम्यक्त्व होता हैं । जानने योग्य तत्त्व आत्मादि नौ तत्त्व ही हैं । संसार के अन्य दृश्यमानः पदार्थ तो जड़ पौद्गलिक - पदार्थ हैं - इन में क्या जानना है ? जानने योग्य - ज्ञेय तो नौं तत्त्व ही हैं।
तत्त्वों को सही ढंग से कैसे जाने ?
हम अल्प बुद्धि वाले हैं - अज्ञानी हैं और अप्रत्यक्ष नौ तत्त्वों को तथा उनके
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