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________________ मात्र अर्ध पुद्गल परावर्त काल ही शेष रहा है यह अर्ध उस अनंत के सामने कुछ भी नहीं है । बिल्कुल ही अल्प है । सम्यक्त्व प्राप्त करने का बड़े से बड़ा फल यदि कोई हो तो वह यह है कि जिस समय जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसी समय जीव का मोक्ष निश्चित् हो जाता हैं । सम्यक्त्व की प्राप्ति अर्थात् मोक्ष के निर्णय की पहचान । मोक्ष प्राप्ति अब निश्चित् है - यह इसका चिन्ह है । इस प्रकार एक मात्र सम्यक्त्व प्राप्त करने मात्र से मोक्ष प्राप्ति निश्चित् हो जाती हो तो फिर आनंद का परिमाण न्यून क्यों रहे ? सम्यक्त्व प्राप्त करने का यह महान् फल है। सम्यक्त्व के पर्दे के पीछे मोक्ष छिपा हुआ है । सम्यक्त्व में मोक्ष का अस्तित्व है । यह समझकर भी सम्यक्त्व प्राप्त न हुआ हो तो किसी भी कीमत पर, लाख प्रयत्न करके भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हेतु प्राणों की बाजी लगाकर भी संघर्ष करना चाहिये । आत्मा को अपूर्व पुरुषार्थ साधना ही चाहिये । किसी भी मूल्य पर सम्यक्त्व प्राप्त करके सच्चा श्रद्धालु बनना ही चाहिये और सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने के पश्चात् उसे स्थायी बनाये रखना चाहिये । उसे स्थिर करने हेतु पुरुषार्थ करना चाहिये । यदि उसे टिकाए भी रखा हो तो उसे अधिकतम निर्मल करने हेतु सतत साधना के क्षेत्र में लीन रहना चाहिये । उसके लिये ६७ भेद से सम्यक्त्व की उपासना चलती ही रखनी चाहिये । सम्यक्त्व का स्वरुप और प्राप्ति सम्यक्त्व प्राप्ति निसर्ग से अधिगम - ‘तन्निसर्गादधिगमाद्वा' तत्त्वार्थाधिगम सूत्रकार पूर्वधर महापुरूष ने सम्यक्त्व प्राप्ति के दो मार्ग बताए हैं । ( 9 ) निसर्ग से और ( २ ) अधिगम से । निसर्ग से अर्थात् प्राकृतिक रुप से स्वाभाविक रीति से स्वयं ही स्वतः जीव नौ तत्त्वों की श्रद्धा को धारण कर लेता है, आत्मा परमात्मादि का स्वरुप चिन्तन, मनन आदि की प्रक्रिया से सच्चे स्वरुपमें अपने आप समझ कर सच्ची श्रद्धा प्राप्त करना । दूसरा प्रकार अधिगम का है। अधिगम में देव - गुरु का उपदेश कारण निमित्तरूप बनता है। शास्त्र श्रवण, उपदेश ग्रहण आदि की प्रक्रिया से जीव नव तत्त्वों का वास्तविक स्वरुप समझ लेता है और सत्य मार्ग को स्वीकार कर लेता है उस में सच्ची श्रद्धा पैदा हो जाती है। इस मार्ग पर चलने से ही अधिकांश जीवों को सम्यक्त्व प्राप्त होता है । 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग् दर्शनम्' तत्त्वभूत पदार्थों 380 ·
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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