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________________ स्पष्ट दिखाई देगा कि सत्य में ही सत्यता की बुद्धि रखना, जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही जानना, अर्थात् तत्त्व की यथार्थता को स्वीकार करना - इसी का नाम सम्यक्त्व है - यही सम्यग् दर्शन है । इस श्रद्धा का धारक ही सम्यक्त्वी सम्यग्दर्शनी अथवा सच्चा श्रद्धालु बनता है - इससे विपरीत मिथ्यात्वी बनता है । सम्यग् दर्शन से भव गणना : हम पूर्व में विचार कर चुके हैं कि अनादि अनंत मिथ्यात्व काल में कितने भव हुए ? जीव ने कितने जन्म धारण किये ? आदि की गणना असंभव है, . अशक्य है । मरण या अनंत में गणना कैसे हो ? संभव ही नहीं है, परन्तु जीव इस अनादि गाढ मिथ्यात्व का अंत लाए, उसे समाप्त करके सम्यक्त्व के सोपान पर चढने लगता है, तभी से मोक्ष - प्राप्ति तक के काल में, वह कितने भव करता है, उनकी गणना होती है, क्यों कि जीव जैसे ही सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसी समय उसके मोक्ष प्राप्ति का काल निश्चित हो जाता है । यद्यपि दोनों ही वस्तुएँ निश्चित हो जाती हैं, एक तो यह कि सम्यक्त्व प्राप्त किया हुआ जीव अवश्य मोक्ष में जाएगा ही, और दूसरी यह कि अर्धपुद्गल परावर्तकाल में तो वह अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करेगा ही - इस में जरा भी शंका नहीं है । इस प्रकार मोक्ष और मोक्ष प्राप्ति का काल निश्चित हो ही जाता है । वह भी मात्र प्रथम सम्यक्त्व पाता है तभी अर्थात् अब विचार करो कि भूतकाल में अनंत भव-जन्म क्यों हुए ? क्यों कि काल अनंत था, अब काल अनंत नहीं है । अब तो मात्र अर्ध पुद्गल परावर्त काल ही शेष रहा है फिर प्रश्न ही कहाँ रहता है ? इस अर्धपुद्गल परावर्त काल में हो - हो के भी जीवात्मा के कितने भव हो सकेगा ? अनंत तो संभव ही नहीं है । अधिक से अधिक करे तो भी असंख्य भव हो सकते हैं, परन्तु अधिकांशतः तो संख्यात भवों में ही बेड़ा पार हो जाता है, फिर प्रश्न कहाँ रहा ? इस दृष्टि से हमारे आनंदित होने जैसा कोई भी विषय यदि आज हो तो वह एक मात्र सम्यक्त्व प्राप्त का है, इसी का आनंद मानने जैसा है, क्यों कि हमारी मोक्ष प्राप्ति के काल की मर्यादा का सारा आधार ही सम्यक्त्व पर है । ___ यह सम्यक्त्व जिस भव में प्राप्त किया वह प्रथम अब और मोक्ष प्राप्ति का अन्तिम भव गिना जाएगा और इन दो छोरों के मध्यवर्ती भवों की ही संख्या गिनी जाएगी। इस जीव ने कितने भव किये ? यहाँ उत्तर में यदि संख्या कहनी हो, तो इन दो छोरों के मध्य की ही संख्या बतानी है । प्रत्येक के भव-संख्या की गणना 383
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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