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________________ करके आगे बढ़ता है और अनिवृत्तिकरण से सम्यक्त्व प्राप्त करके स्थिर हो जाता है । अतः सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना पुनः पीछे न हटने की प्रतिज्ञारुप आत्मा के विशुद्ध अध्यवसायरुप संकल्प को अनिवृत्तिकरण कहते हैं । इसका समय अन्तर्मुहूर्त दो घटिका मात्र ही होता है और यह अपूर्वकरण का कार्य है । बस, यही चरम करण है। मिथ्यात्व के दो भाग करके अन्तःकरण करता है, इन में से छोटे पुंजरुप मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दलिकों का अन्तर्मुहूंत में क्षय करता है । इस समय जीव को उपशम नामक सम्यक्त्व प्राप्त होता है । मिथ्यात्व के उपशम द्वारा - उपशम भाव द्वारा उद्भूत् सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता हैं । अननंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का अनुदय - उपशम होता है । अनादि - अनंतकालीन राग - द्वेष की निबिड़ ग्रंथि टूट जाती है और जीव संसार चक्र में सर्व प्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है । एकदम प्रथम मिथ्यात्व के गुण स्थान से चतुर्थ. सम्यक्त्व के गुणस्थान पर जीव आता है, जीव के परम आनंद का दिन यही होता है । अध्यवसायों की विशुद्धि होती है और वह एक कठोर परीक्षण में से पार उतरता है। सम्यक्त्व प्राप्ति का परमानंद : सम्यक्त्व मिश्र सास्वादन मिथ्यात्व जीवात्मा आत्माविकास के सोपान १४ है जो १४ गुणस्थानों के नाम से जाने जाते हैं । यथाप्रवृत्तिकरण - अपूर्वकरण - अनिवृत्तिकरण की प्रक्रिया करके जीव प्रथम मिथ्यात्व के गुणस्थान से सीधा चतुर्थ अविरत सम्यक्त्व के गुणस्थान पर आता है। अनादि - अनंत काल में जो कभी भी प्राप्त न हुआ वह आज इस समय ग्रंथि भेदोपरान्त सर्व प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है । आयुष्य भर के दरिद्र - भिखारी को जिस प्रकार परमान्न का भोजन मिलने पर जितना आनंद होता है, रंक को जिस प्रकार रत्नों की खान मिलने पर जितना परम आनंद आता है, उस से भी अनंत गुना आनंद जीव को प्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति में होता है । वास्तव 378
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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