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________________ है। यह ग्रंथि मलीन राग-द्वेष के कारण बनती है । कर्म ग्रंथ की भाषा में इसे अनंतानुबंधी कषायों की चौकड़ी कहते हैं । जिस प्रकार वस्त्र पर बैलगाड़ी के पहियो का चिकना तैलीय मैल लग जाए और उसका दाग इतना गहन होता है कि वस्त्र फट जाने पर भी वह दाग नहीं मिटता, इसी प्रकार राग-द्वेष की यह ग्रंथि भी ऐसी ही दृढ होती है । आत्मा-चेतन अनंत शक्ति का स्वामी है । भूतकाल में कभी भी प्रस्फुटित न की हो इतनी और ऐसी अपूर्व शक्ति का प्रयोग आत्मा करती है। यथाप्रवृत्तिकरण करके जीव ने कर्म की उत्कृष्ट स्थितियों में न्युनता ला दी और अन्तः कोटा कोटि सागरोपम की स्थिति में जीव आ गया, जिसके कारण अनंत की स्थिति का बल घट जाता है और आत्मा अपूर्वकरण कर लेती है । ___ 'अपूर्व' न पूर्वमिति अपूर्व' अर्थात् पूर्व में कभी भी जिसका स्फूटन न किया हो ऐसी अपूर्व शक्ति का स्फुटन करना अपूर्वकरण की प्रक्रिया है । अपूर्वकरण न करे तो जीव सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना ही रह जाता है । यथाप्रवृत्तिकरण तो सैंकड़ों जीव कर लेते है । इसके योग से जीव राग-द्वेष की ग्रंथि के समीप अनेक बार आ जाते है और लौट भी जाते हैं । यथाप्रवृत्तिकरण सरल है, जब कि अपूर्वकरण में तो ग्रंथि भेद का बड़ा ही दुष्कर कार्य है, अध्यवसाय की विशुद्धियों को उपलब्ध कर जीव साहस बटोरता है और एक बार ऐसी अपूर्वशक्ति का प्रस्फुटन कर ले है । राग-द्वेष की ग्रंथि को भेद कर वह आर-पार उतर जाता है। बस, इसी समय अनंतानुबंधी सप्तक का द्दढ दुर्ग मजबूत किल्ला भेद दिया जाता है । और जीव संसार भ्रमण काल में प्रथमबार सम्यकत्व प्राप्त करता है । सच्चे की सत्य स्वरुप में प्रतीति-अनुभूति होती है इस प्रक्रिया का परमानंद कोई अद्भुत् अनुपम और अवर्णनीय ही होता है । अनिवृत्तिकरण : __ अप्पुब्वेणं तिपुंजं मिच्छत्तं कुणइ कोहबोवमया । __अनियट्टीकरणेण उः सो सम्मइंसणं लहइ ॥ विशेषावश्यक भाष्यकार बताते हैं कि अपूर्वकरण की प्रक्रिया द्वारा जीव कोदरे आदि धान्य की भाँति मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है, परन्तु सम्यक्त्व की प्राप्ति तो अनिवृत्तिकरण की प्रक्रिया के पश्चात् ही होती है । आत्मा का ऐसा विशुद्ध अध्यवसाय विशेष रुप करण जिसमें सम्यक्त्व प्राप्त किए बिना जीव निवृत्त नहीं होता उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । अपूर्वकरण से जीव ग्रंथि भेद 377
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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