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सशरीरी बनने के लिये देह का निर्माण करना पड़ता है और देह निर्माण हेतु जन्म धारण करना पड़ता है, जन्म धारण करने के लिये जीवात्मा को किसी न किसी की योनि में उत्पन्न होना ही पड़ता है, और उस उत्पत्ति के स्थान में आहारादि ग्रहण करके वह अपने देह की रचना करता है, देह रचना में इन्द्रियों का निर्माण करके श्वासोच्छ्वास लेने पड़ते हैं, फिर बोलचाल के व्यवहार के लिये भाषा तथा विचारार्थ मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण करने पड़ते हैं । प्राणों को भी धारण करने पड़ते हैं । प्राणों को बनाने के लिये बाह्य जगत के वातावरण में से उसे पुद्गल परमाणुओं की वर्गणाओं को खींचकर लेनी पड़ती है, तत्पश्चात उनका परिणमन करना पड़ता है । इतना सब कुछ करने पर ही जीव इस संसारमें जी सकता हैं | यह सब करने के लिये राग-द्वेष के बिना कैसे चल सकता है ? इनके बिना यह सब कुछ बनाना संभव ही नहीं है। राग-द्वेष से पुनः कर्म बंधन करना और इन कर्मों के उदय से पुनः राग - द्वेष करना - इस प्रकार के विषचक्र में जीव फँस गया. है, अतः उसे सतत राग - द्वेष की वृत्ति - प्रवृत्ति मे रहना ही पड़ता है ।
इसी कारण से जीव संसार में सदा काल से सकर्मी अर्थात् कर्मयुक्त ही कहलाता है । एक दिन भी यह कर्मरहित - अकर्मी नहीं रहा, अतः संसारी अवस्था अर्थात् कर्मयुक्त अवस्था और कर्म संयुक्त अवस्था अर्थात् संसारी अवस्था। इस प्रकार एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं । कर्मरहित जीव बने तभी संसार रहित अर्थात संसार से मुक्त बनता है - उसके बिना नहीं । कर्मों की इतनी प्रचण्ड पकड़ आत्मा पर हैं।
गाँठ न लगाने पर भी, उलझे हुए धागे में ऐसी गाँठ पड़ जाती है कि कई बार इधर-उधर खींचने पर गाँठ खुलने के बजाय और अधिक दृढ होती जाती है,
और तंग आकर हमें उसे छोड़ देना पड़ता है । ऐसी ही स्थिति यहाँ है । इतने अधिक राग - द्वेषों की भयंकर ग्रंथि आत्मा के साथ बँध चुकी है, आत्मा उन में फंस चुकी है और यह ग्रंथि इतनी भयंकर है कि उसे तोड़ना भल भलों के लिये लोहे के चने चबाने जैसा कार्य है । इसके लिये जीव अपनी अद्भुत शक्ति का ही प्रस्फुटन करे तभी यह संभव हो सकता हैं । .
गंठित्ति सुदुब्भेओ कक्खड़घणरुढ गूढ गंठिव्व ।
जीवस्स कम्म जणिओ घणराग - दोस परिणामो ॥ आत्मा के कर्म जनित राग - द्वेष के परिणाम स्वरुप जो ग्रंथि बँधती है, वह अत्यन्त कठोर, निबिड़ दुर्भेद्य, और बाँसवृक्ष के संधिस्थल जैसी गाढ ग्रंथि होती
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