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________________ अनेक पत्थर गोल चिकने बन जाते हैं । नदी या पानी कोई भी पत्थर को गोल नहीं बनाता हैं, न पत्थर स्वयं भी प्रयत्न विशेष करके गोल बनता हैं, फिर भी नदी के प्रवाह के साथ लुढ़कता हुआ - रगड खाता हुआ पत्थर गोल - चिकना बन जाता हैं, उसी प्रकार काल के प्रवाह में बहते बहते संसार के दुःख-ताप आदि अनेक कष्ट सहन करते करते अकाम निर्जरा करके जीव कर्मों की बहुत बड़ी स्थिति को न्यून कर डालता हैं, मिथ्यात्व को बिल्कुल मंद कर डालता हैं । इस क्रिया को यथा प्रकृत्तिकरण की प्रवृत्ति कहते हैं । यथाप्रवृत्तिकरण सामान्य और विशिष्ट दोनों प्रकार का होता है । इस विशिष्ट यथाप्रवृत्तिकरण से जीव राग-द्वेष की गाँठ तोड़ने की दिशामें आगे प्रगति करता है । इसे आत्मोन्नाति या आत्मविश्वास का प्रथम सोपान कहते हैं । प्रत्येक जीव को इस दिशा में ही इस प्रक्रिया में से ही गुजरना पड़ता हैं । भव्य जीव यह यथाप्रवृत्तिकरण की प्रवृत्ति करके कर्मों की जो उत्कृष्ट बंध स्थितियाँ बाँधी हुई होती हैं उनके गाढ बंधनों को शिथिल करते हैं और आत्मा को आगे बढ़ाते हैं । __मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट बंध स्थिति ७० कोटा कोटि सागरोपम की है । ज्ञानावरणीय; दर्शनावरणीय, अन्तराय और वेदनीय कर्म की ३०-३० कोटा-कोटि सागरोपम की उत्कृष्ट बँध स्थिति है । नाम - गोत्रकर्म की २०-२० कोटा कोटि सागरोपम की उत्कृष्ट बंध स्थिति है और आयुष्य कर्म की तो मात्र ३३ सागरोपम की उत्कृष्ट बंध है । इन आठों ही कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को अकाम निर्जरा के प्रबल प्रयोग से खपाकर यथाप्रवृत्तिकरण काल में सर्वथा घटाकर अंतः कोटाकोटि सागरोपम पर ले आता है - इतनी अधिक घटा देता है अर्थात् ७० में से ६९, ३० में से २९, और २० में से १९ कोटाकोटि सागरोपम की बंध स्थितियाँ खपा देता है, घटा देता है और १ कोटाकोटि से भी अंदर की बंध स्थिति लाकर खड़ी कर देता है । इस प्रकार सातों ही कर्मों की स्थिति बिल्कुल ही न्यून कर देता है । वह कार्य यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया के समय में हो जाता है । इसके पश्चात् अपूर्वकरण की दिशा में जीव आगे बढ़ता है । अपूर्वकरण और ग्रंथिमेद : अनंत ज्ञानादि गुणों की सत्ता को धारण करनेवाली आत्मा स्वयं ज्ञानादि गुणों से विशुद्ध है, परन्तु संसारी अवस्था में रागद्वेषादी से ग्रसित है । संसारी अवस्था में तो सशरीरी ही रहना पड़ता है, अशरीरी तो मुक्तात्मा बन जाती है । 375
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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