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________________ 1 धीरे धीरे धर्म सम्मुखीकरण होता है । उसमें से भी और अधिक आगे बढ़ता है । विशुद्धि में वृद्धि होती जाती है और वह मार्गानुसारी बनता है । मार्ग सम्मुखी बनकर फिर वह धर्म मार्ग के अनुसरण की इच्छा को प्रबल बनाता है । यद्यपि मार्गानुसारी की अवस्था में जीव धर्मी नहीं बना, परन्तु धर्मसम्मुखी अवश्य बना है । फिर यथाप्रवृतिकरण की प्रक्रिया में वह आगे बढ़ता है । यथाप्रवृत्तिकरण : यथा + प्रवृत्ति + करण = यथाप्रवृत्तिकरण । यथा अर्थात् जैसी होनी चाहिये वैसी, जैसी होनी चाहिये वैसी प्रवृत्ति को यथा प्रवृत्ति कहा गया हैं । आत्मा की अपनी स्वहित में जैसी होनी चाहिये वैसी प्रवृत्ति को यथाप्रवृत्ति कहा गया है। इसमें करण अर्थात् विशिष्ट आत्म शक्ति का प्रस्फुटन कर आगे प्रगति करना हैं। अकाम निर्जरा के योग से जीव जितनी कर्म- प्रकृतिओं को खपाता था उन्हें सविशेष, बढ़ा कर कर्म क्षय करता करता आगे बढ़े - उसे यथा प्रवृत्तिकरण कहते हैं । क्षुधा - तृषा, ताप-धूप आदि परवशता वश सहन करता करता अकाम निर्जरा में वृद्धि करता है । ऐसी प्रबल शक्ति को बढ़ाकर अकाम निर्जरा करता करता जीव अनेक कर्मों की बंध स्थिति को घटाता हुआ आगे बढ़ता है । भले ही यह सब स्वेच्छापूर्वक न भी होता हो, अनिच्छा से भी होता हो, तब भी कर्म की निर्जरा बहुत होती है । I जिस प्रकार " घुणाक्षर न्याय" का वर्णन है कि घुण नामक कीड़ा लकड़े के एक छोर से दूसरे छोर तक पहूँच जाता है, उसमे मोड़ वाली कई प्रकार की आकृतियाँ बनाता है । ये आकृतियाँ अ, ब, क, ड, ल, व, य जैसे अक्षरों के समान दिखती है अतः लोग कल्पना करते है कि घुण लकड़ी पर अक्षर बनाता है । वास्तव में उस कीड़े को पता ही नहीं होता कि वह अक्षर बना रहा है, उसे अक्षरों का जरा भी ज्ञान नहीं होता है, वह तो अपने स्वभाव के अनुसार कुतरता ही जाता है और अक्षर बन जाते हैं । इसी प्रकार कर्म-धर्म कुछ भी न पहचानते हुए भी जीव दुःख, ताप सहन करता करता अकाम निर्जरा करता करता कर्म की अनेक स्थितियाँ कमकर डालता हैं । इस विषय को समझाने के लिये 'नदी गोल पाषाण न्याय' का एक अन्य भी इष्टान्त दिया जाता है । पर्वतों में से नदी बहती है तब अनेक पत्थर भी पानी के प्रवाह में बहते हुए खींचे चले आते हैं, रगड़ खाते खाते, टकराते, पछाड़ खाते 374
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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