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________________ कोल्हू का बैल जिस प्रकार आँख पर पट्टी बँधी हुई स्थिति में कोल्ह के चक्कर काटता ही रहता है उसी प्रकार जीव भी संसार चक्र में ८४ लाख जीव योनि के चारगति में अनंत पुद्गल परावर्त कालचक्र में फिरता ही रहता है और अगणित अनंत पुद्गल परावर्त काल में घूमता घूमता चरमावर्त काल में प्रवेश करता है । तत्पश्चात् यथा-प्रवृत्तिकरणादि करता करता सम्यक्त्व प्राप्ति के निकट आता है। सम्यक्त्व प्राप्ति की प्रक्रिया आवर्त अर्थात् वर्तुल । पुद्गल परावर्त काल की विशेषसंज्ञा है, अनन्त यह संख्यातीत काल है । एक पुद्गल परावर्त में भी असंख्य वर्षों का काल बीत जाता है - ऐसे तो अनंत पुद्गल परावर्त काल व्यतीत होते हैं । इतने अनंत काल में जीव के भवं कितने हुए ? उत्तर है - अनंत । इसमें कालांतर में जीव तथाप्रकार की योग्यता प्राप्त होने पर चरमावर्त में आकर प्रवेश करता है और चरमावर्त में जीव का तथाभव्यत्व परिपक्व होता है । अब आगे पुनः दूसरी बार आवों में घूमना न पड़े ऐसे इस अन्तिम आवर्त में अर्थात चरमावर्त में जीव प्रवेश कर चुका होता है । जिस प्रकार घर की कोठी में वर्षों तक पड़े हुए गेहूँ या मूंग आदि को कालांतर में हवा-पानी-प्रकाश-योग्य भूमि आदि प्राप्त होने पर वे अंकुरित हो जाते हैं, और उनसे पौधे उग आते हैं, उनका विकास होता है, उसी प्रकार काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, और पुरुषार्थ आदि पाँचों ही समवायी कारणों के योग से भव्यत्व परिपक्व करते हैं । जैसे दूध तो सारा ही दूध ही होता है, समान ही होता है, सभी पात्रों में अलग अलग होने पर भी बादाम, पिश्ता, केसर, इलायची मिश्री आदि के योग से विशेषता धारण करके वह विशिष्ट कक्षका बनता है, उसी प्रकार सभी भव्य जीव समान - एक जैसे होने परभी भव्यत्व परिपक्व करके कुछ जीव विशिष्ट कक्षा के बन जाते हैं, विशेषता धारण कर लेते हैं । ऐसे जीव धर्मसम्मुख बन जाते हैं । ऐसे तथाभव्यत्व परिपक्व किये हुए जीव शुद्ध अध्यवसाय के योग से चरमावर्त में प्रविष्ट हो कर विकास की दिशा में आगे प्रगति करते हैं । जीव अपनी अनादिकालीन 'ओघ द्दष्टि' का त्याग करके 'योग द्दष्टि' मे प्रवेश करता है । मित्रा, तारा द्दष्टि में स्वल्पमात्र बोध प्राप्त करता हैं, धर्म श्रवण करने की. उसकी जिज्ञासा प्रारंभ होती है । जिज्ञासा के इस शुभ काल को श्रवण - सम्मुखी काल कहते हैं । इसे ही प्रथम सोपान कहा है । फिर 373
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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