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________________ और २७ आदि जो तीर्थंकरों की भव संख्या है वह सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद से मोक्ष जाने तक की भव संख्या है, तो फिर अनंत की भव संख्या कौन सी ? इसका उत्तर यही है कि सम्यक्त्व प्राप्ति से पूर्व मिथ्यात्व काल की सारी ही भव संख्या अनंत है और मिथ्यात्व में से सम्यक्त्व प्राप्त करने के पश्चात् ही भव-गणना की जाती है, भवों की गिनती शुरु होती है और मोक्षगमन करते हैं वहाँ तक के भवों के आधार पर कहा जाता हैं कि इनके ३ भव, ८ भव, १० भव, १३ भव अथवा २७ भव हुए हैं परन्तु उससे पूर्व के भव उनके भी अनंत थे । अनंत की भव संखया कैसे गिनें ? अनंत भवों की गणना कैसे हो ? इसीलिये मिथ्यात्व काल के अनंत भवों की संख्या नहीं गिनी जाने योग्य होने से अनंत ही हैं । सम्यक्त्व प्राप्ति से श्री गणेश : __ सम्यक्त्व प्राप्ति से ही आत्म विकास का शुभारंभ होता है । मिथ्यात्व के अनादि अनंत काल में जीव जिसे साधने में असमर्थ रहता है, उसे सम्यक्त्व के अल्प काल भी वह साध लेता है । सम्यक्त्व आत्मा के चढ़ने का प्रथम सोपान है। बस, यहीं से आध्यात्मिक विकास का श्री गणेश होता है । आत्मां मिथ्यात्व के अनंत काल के पश्चात् प्रथम बार ही स्व स्वरूप को पहचानती है । उसे अपना भान प्रथम बार ही होता है । जीवादि नव तत्त्वों का ज्ञान उसे आज प्रथम बार ही होता है और प्रथम बार ही उसे सच्चा स्वरुप समझ में आता हैं - उसे सम्यग्ज्ञान होता है । अभी तक जिस मिथ्यात्व में मिथ्याज्ञान में टकराता रहा, जिस में कुछ भी ठिकाना न पड़ा, किसी भी प्रकार का सच्चा ज्ञान न हुआ, वह अब सम्यक्त्व प्राप्त होने पर सब सत्य स्वरुप में परिणमित होता हैं, जब सच्चा ज्ञान होता है - सच्चा स्वरुप समझ में आता है । सच्चे को सच्चे के रुप में पहचानने - परखने की शक्ति समझ - बुद्धि - दृष्टि आदि सब कुछ प्राप्त होती है, जिस प्रकार मानो जन्मांध को अचानक दृष्टि मिल जाती है और आँखें खोलकर वह सब कुछ देखने लगता है, तब उसे प्रथम बार दिखता है कि सूर्य का प्रकाश ऐसा होता है । लालहरी-पीली वस्तुएँ ऐसी होती है और काले अंधकार में से बाहर निकलकर जिसने पहली बार ही धरती पर प्रकश देखा हो उसे कितना आनन्द आता है । उस से भी हजार गुना आनंद जीव मिथ्यात्व के अँधकार अथवा अँधत्व से सम्यक्त्व के प्रकाश में आने पर अनुभव करता है । यह सत्य स्वरुप का ज्ञान - सच्ची श्रद्धा आदि सब अनुपम अद्वितीय तथा अवर्णनीय होते हैं । 372
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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