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________________ जाता है । इस प्रकार वह अनंत पुद्गल परावर्तकाल परिभ्रमण में व्यतीत कर डालता है और अंत में भव्यात्मा मोक्ष में जाती है । ऐसा ही अनंत जीवों का क्रम चलता है। संसार जीवों का हैं - अजीवों का नहीं । जीव चौदह राजलोक में है । १४ राजलोक के तीन विभाग किये गए हैं । उर्ध्वलोक को देवलोक-स्वर्ग कहा, जहाँ मात्र स्वगीर्य देवी - देवतागण का ही निवास है । दूसरे को अधोलोक कहा । वहाँ मात्र नरकी के नारक जीव ही सात नरक भूमियों में रहते हैं । तीसरे को तिच्छी लोक कहा गया - या मृत्युलोक कहा गया । यहाँ मनुष्य और तिर्यंच पशु - पक्षी रहते हैं । इस तिच्छा लोक में असंख्य द्वीप-समुद्र हैं । ढाई द्वीप मात्र मनुष्य क्षेत्र है । इतने में ही मनुष्य उत्पन्न होते हैं और मरते हैं । सर्व असंख्य द्वीप समुद्र सभी तिर्यंचगति के पशु - पक्षियों के लिये हैं । इस चौदह राजलोक के संसार में अनंत जीव हैं । संसार परिभ्रमणशील हैं । चारों ही गतिओं में जीवों का परिभ्रमण सतत चलता ही रहता है . (१) देव, (२) मनुष्य, (३) नरक और (४) तिर्यंच चार गतियाँ हैं । कृत कर्मानुसार जीव चारों ही गतिओं में सतत गमनागमन करते ही रहते हैं । एक गति में से दूसरी गति में आवागमन चलता ही रहता है और इसी का नाम संसार चक्र है । जिस प्रकार नदी बहते हुए पानी के प्रवाह वाली होती है वैसा ही संसार है । मात्र चौदह राजलोक क्षेत्र में चारों ही गतिओं में जीवों के गमनागमन के परिभ्रमण को संसार चक्र कहते हैं - यह चक्र गतिशील है । जीवों का चारों ही गतिओं में आवागमन चलता ही रहता है । नीचे दिये हुए चित्र को देखने से स्पष्ट ख्याल आ जाएगा । इस चित्र में बताई हुई दिशा के अनुसार वे - वे जीव संबंधित गति में से निकलकर अन्य गति में जाते हैं - इस बात का ज्ञान हो जाएगा । निगोद जीवों की खदान है । जिस प्रकार हीरे - पन्ने खान में से निकलते हैं, उसी प्रकार जीवों की मूल खदान निगोद है । शाश्वत नियम के अनुसार जब एक जीव मोक्ष में जाता है तब एक जीव निगोद में से बाहर निकल कर संसार के व्यवहार में आता है, फिर वह चारों ही गतिओं में भ्रमण करता है - कर्म बाँधता है और पूर्व बद्ध कर्मों के अनुसार भटकता है - फल भुगतता है । इस प्रकार चार गति के संसार चक्र मे जन्म - मरण करता करता अनंत काल व्यतीत कर डालता है और इस में भी मिथ्यात्व अवस्था में तो साध्य या लक्ष्य के अभाव में अनंत काल बीतता ही जाता है जिस का कुछ भी पता नहीं चलता । 370
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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