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________________ संसार अनादि - अनंत - शाश्वत है, जिसका न आदिकाल ज्ञात है न अंतिम छोर का पता है - ऐसा संसार अनादि - अनंत होता है । संसार का सर्वथा नाश भी संभव नहीं होता और न इसकी उत्पत्ति ही संभव है । अतः जैनेतर ईश्वर कर्तृत्ववादी दर्शन जो कहते हैं कि सृष्टि का सर्वथा प्रलय होता है - ईश्वर करता है और फिर पुन : दूसरे युग में वह ईश्वर ही नवीन सृष्टि का निर्माण करता है, उन्होंने संसार की आदि और अंत दोनों ही स्वीकार किये हैं । अतः - उनके मतानुसार संसार सादि सान्त हैं । इस और ईश्वर को जगत का कर्ता न मानने वाले जैन स्पष्ट रुप से कहते हैं कि - संसारकी उत्पत्ति ही नहीं है । कोई भी ईश्वर कभी भी संसार का निर्माण नहीं करता है । सृष्टि रचना किसी भी काल में नहीं होती है - इसीलिये कभी भी इसका महाप्रलय भी नहीं होता है - संभव ही नहीं है । संसार प्रवाह से अनादि अनंत है । संसार क्या है ? क्या किसी वस्तु विशेष का नामकरण किया गया है कि यह संसार है ? अथवा क्या संसार अर्थात् कोई पदार्थ विशेष है ? नहीं, नदी किसे कहते हैं ? पृथ्वी पर दो तटों के बीच प्रवाह बद्ध बहता हुआ पानी नदी कहलाता है । इसी प्रकार जीवों का जन्म-मरण के प्रवाह से सदैव गतिमान स्वरुप संसार कहलाता है । इसके सिवाय किसी वस्तु या पदार्थ विशेष का संसार नहीं कहते हैं। संसार किसी पक्षी का नाम नहीं है । संसार अनंत जीवों के जन्म-मरण के चक्रों का स्वरुप है | संसार का कर्ता ईश्वर नहीं है । जीव स्वंय संसार के कर्ता है । स्वरुप संसार की रचना जीव स्वयं करते हैं । यह संसार अनंत जीवों और अजीव (निर्जीव) जड पुद्गल पदार्थों से भरा पड़ा है । जीवों का अस्तित्व जहाँ तक रहेगा वहाँ तक संसार का अस्तित्व रहेगा । दोनों ही अन्योन्याश्रयी हैं । ऐसा अनादि - अनन्त शाश्वत संसार में अनंत जीव चारगतियों के चक्र में परिभ्रमण करते ही रहते हैं - भटकते ही रहते हैं । यह संसार काल प्रवाह से अनादि - अनंत है । कालिक दृष्टि से जिसकी आदि - शुरुआत कभी भी कोई भी जान नहीं सकता और काल प्रवाह से उसका अंत भी किसीको गम्य नहीं, परन्तु इस संसार का प्रथम छोर ज्ञानीजन निगोद का बताते हैं और अंतिम छोर मोक्ष का बताते हैं । निगोद के छोर से जीव के संसार का प्रारंभ होता है और मोक्ष में जाने पर उसके संसार का अंत होता है । पास के चित्र में देखने पर एक जीव की अनंत भव परम्पराओं का ख्याल आएगा कि एक जीव निगोद के गोले में से बाहर निकलता है और चार गतिमय संसार चक्र में परिभ्रमण करता करता आगे बढ़ता 369
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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