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________________ ने की है, जब कि अर्थ की प्ररुपणा सर्वज्ञ भगवंतो ने की है, अतः मूल स्रोत तो तीर्थंकर केवली ही हैं । श्रुतज्ञान की महत्ता भी तब बढती है, जब उस पर सर्वज्ञ की मुद्रा अंकित हो । इस प्रकार श्रुतज्ञान भी केवलज्ञानी की मुद्रावाला है, इस प्रकार हम नवकार महामंत्र को चौदह पूर्व के साररुप श्रुतज्ञान के स्वरुप में गिनते हैं, अतः उस पर सर्वज्ञ की मुद्रा स्वीकार करनी आवश्यक है । शब्द रचना, सूत्र बद्धता गणधरों की होने पर भी प्रतिपादन अथवा अरु पणा तो सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा की रहती है । इस प्रकार यदि हम स्वीकार कर लेते हैं तो, जैन धर्म को वेदान्त की मान्यता मानने जैसा दोष नहीं लगता है । काल की दृष्टि से अनादिता - उपरोक्त विचारणा के आधार पर एक निर्णय पर हम अवश्य आ गये हैं कि रचना के आधारभूत केन्द्र स्थान पर सर्वज्ञ अरिहंतो और गणधरों के सिवाय तीसरा कोई भी बीच में नहीं आता हैं । केन्द्र स्थल में इन दो का ही स्थान निश्चित है, तो प्रश्न यह उठता है कि किन व्यक्तिगत नामधारी सर्वज्ञ अरिहंत अथवा गणधर को रचयिता माने? कोई निश्चित नाम सामने आता है क्या? नहीं, इसका कारण इतना ही है कि नवकार महामंत्र काल की दृष्टि से दीर्घकाल से व्यवहार में प्रचलित है । अत्यन्त दीर्घकाल का अर्थ यह हुआ कि जब से अरिहंत भगवंत हुए हैं, तब से नवकार महामंत्र है । अर्थात् यदि नवकार महामंत्र की आदि सिद्ध हो जाए, तब तो जैन धर्म की आदि, तीर्थंकरों की आदि - इत्यादि सब कुछ सिद्ध हो जाता है, क्योंकि जब से जैन धर्म है, तभी से नवकार महामंत्र है और जब से नवकार महामंत्र है, तभी से जैन धर्म का अस्तित्व है, क्योंकि जैन धर्म और नवकार महामंत्र दोनों ही, अन्योन्य पूरक है और इनके केन्द्रस्थान में सर्वज्ञ अरिहंत भगवंत है । अरिहंत कितने हुए? और किस काल में कितनी संख्या हुई? इसके उत्तर में बहुत ही सुंदर कहा गया है कि - आगे चोवीशी हुई अनंती, वली रे होशे वार अनंत । नवकार तणी कोई, आदि न जाणे, एम भाखे, अरिहंत ॥ अर्थात् भूतकाल में, अनंत चौबिशियाँ हो चुकी हैं और भविष्य में भी अभी तो अनंत चौबिशियाँ होनेवाली हैं । अतः नवकार महामंत्र की आदि कौन जान सकता है ? अर्थात् कोई भी नहीं जान सकता - ऐसा स्वयं अरिहंत परमात्मा द्वारा भाषित 17
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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