SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृष्ठभूमि में ऋषि-मुनि पुरुषका कारण प्रत्यक्ष रुपसे मानने में दोष नहीं है । स्वाभाविक है कि घडे के निर्माण की पृष्ठभूमिमें कुम्हार प्रत्यक्ष रुप से कारण सिद्ध ही है । कारण के बिना कार्य नहीं होता है - इस नियम के अनुसार कार्य की सत्ता यदि अंगीकार की जाती है तो उसके पीछे कारण का अस्तित्व भी स्वीकार करना चाहिये। इस प्रकार वेद के कार्य के पीछे किसी ऋषि-मुनि-या पुरुष विशेष का कारणभूत होना स्वीकार करने में ही बुद्धिमत्ता है । इसी प्रकार श्री नमस्कार महामंत्र को भी रचना या कृति के रूप में स्वीकार करते हैं तो उसके कर्ता या रचयिता हम किसे माने ? यह प्रश्न हमें सताता है, परन्तुं जैन धर्म की मान्यता वेदान्तिओं की मान्यता जैसी नहीं है । वह सर्वथा कारणाभावत्वेन कार्य सिद्धि नहीं मानता अथवा नवकार को सर्वथा अपौरुषेय नहीं कहा हैं । इसे चौदह पूर्वों का सार कहा है, तो इसमें कृतिमत्व आ ही जाता है क्यों कि चौदह पूर्व द्वादशांगी आदि रुप में रचित हैं और उनके रचयिता गणधरादि स्पष्ट हैं । हम लोग स्तुति में बोलते हैं कि - 'अर्हद्वक्त्रप्रसूतं गणधररचितं द्वादशांगं विशालम्'। कहा है कि अरिहंत भगवान के मुख में से निकलती हुई, और जिसे गणधर भगवंतों ने गूँथकर रचनाबद्ध की है वह द्वादशांगी अत्यन्त विशाल हैं अर्थात् सूत्र - शास्त्र अथवा आगमादि की रचना का आधारभूत प्रमाण इसमें से स्पष्ट होता है - और पद्धति ऐसी है कि सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवंत प्रसूत करते हैं और गणधर भगवंत उसे सूत्रबद्ध गूंथने का कार्य करते हैं । अधिक स्पष्टता करते हुए बताते हैं कि - 'अत्थं भासई अरिहा सुत्तं गुंथति गणधरा निउणा ' - सर्वज्ञ केवली अरिहंत भगवंत अर्थ की प्ररूपणा करते हैं, समवसरण में देशना के रुप में वस्तु स्वरुप को अर्थ से देशना देकर स्पष्ट करते हैं और उसका श्रवण करके गणधर भगवंत उसे सूत्र के रुप में व्यवस्थित करते हैं, गूंथने का कार्य करते हैं । अतः सूत्ररचना गणधरों की सिद्ध होती है, परन्तु आद्य कर्ता मूलभूत यदि कोई हो, तो वे तीर्थंकर है - यह जैन पद्धति हैं । जैन शासन में ज्ञान के मूल केन्द्रस्थान या उद्भवस्थान अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा हैं । उस ज्ञान को शब्ददेह प्रदान कर व्यवस्थित करनेवाले गणधर भगवंत हैं । श्रुतज्ञान का मूल भी अन्ततः तो केवलज्ञान ही गिना जाता हैं । इस सिद्धान्त की दृष्टि से नवकार महामंत्र भी श्रुतज्ञान स्वरुप है, अतः इसे चौदह पूर्वों का सार कहा गया है, और चौदह पूर्वादि- द्वादशांगी की रचना गणधरों 16
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy