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________________ रुप में हैं । वेद भी ग्रंथरुप ही हैं । क्या यह वर्णमाला अक्षर - शब्द -वाक्यादि स्वरुप रचना पुरुष के सिवाय अन्य किसी के द्वारा रचित होना संभव है ? और पुरुष के सिवाय अन्य किसी के द्वारा अर्थात ईश्वर द्वारा रचित हो, तब भी रचयिता अथवा कर्ता के द्वारा रचित कृति मानी जाए तो यह भी ठीक ही है, परन्तु किसी भी बुद्धिमान पुरुष अथवा ईश्र्वर अथवा किसी को भी कर्ता न मानना कहाँ तक उचित है? वर्णमाला के अक्षर - शब्द - वाक्य आदि पुरुषोत्पन्न ही हैं । मानव के कंठ - स्वरकोष्ठ से ही वर्णमाला की उत्पत्ति मानी गई हा, इतनी ही नहीं, परन्तु यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध है । मानवेतर पशु-पक्षी से ऐसी व्यवस्थित वाक्य रचना स्पष्ट रुप से उच्चारित नहीं होती हैं अतः वेद - वेदान्त की ऐसी सुंदर वाक्य रचना पुरुषरचित ही मानना उचित है । जो वर्णमाला स्वरुप हैं । और वर्णमाला पुरुष प्रसूत ही होती है, अतः वेदादि जो वर्णमाला - अक्षर - शब्द - वाक्य समूहात्मक हैं उन्हें भी पुरुष रचित ही मानना युक्ति संगत है । अन्यथा यदि वर्णमाला को पुरुषेतर या इश्वरेतर युक्ति द्वारा उत्पन्न मानी जाए तो इसमें अनेक दोष आते हैं, और अन्य किसी व्यक्ति द्वारा ही रचित मानने के बजाय तो प्रत्यक्ष स्पष्ट इश्वर के द्वारा हि रचित मानना अधिक हितावह है, वरना अन्य ईश्वर आदि अथवा व्यक्ति की कल्पना करने में पुनः अनवस्थादि दोष लगने का भय है । जब कि जिस ईश्र्वर को कृतिमय पदार्थो का कर्ता माना जाता है, उसी ईश्वर को वेदों का कर्ता मानने में क्या आपत्ति है ? वेद भी तो कृति ही हैं न ? घडा हो और घडे का कर्ता कोई है ही नहीं - ऐसा मानने में लोक व्यवहारगत मूर्खता का बिरुद सिर पर धारण करना पडता है । इसकी अपेक्षा तो प्रत्यक्ष से विरुद्ध जाने की आवश्यकता ही कहाँ है ? और अनेक तर्कयुक्ति पूर्वक यदि ईश्वर की कर्ता के स्वरुप में सिद्धि होना संभव नहीं है, तब तो ईश्वर को ही यदि काल्पनिक पदार्थ माना जाता है और उस काल्पनिक ईश्वर की रचना वेद को वास्तविक मानना अर्थात् पुनः असत् में से सत् की उत्पत्ति मानने का दोष हमारे सिर पर आएगा । हाँ, यदि ईश्वर की ही सत्ता कर्ता के रुप में सिद्ध न हो, तब तो वेद की रचना भी काल्पनिक सिद्ध हो जाएगी । इसकी अपेक्षा तो वनवासी ऋषिमुनीओं को ही वेद के रचयिता-कर्ता स्वीकार कर लिया जाए तो द्रविड प्राणायाम से बचकर लाघवता में आने का भी लाभ है । येन-केन-प्रकारेण भी कार्य की पृष्ठभूमि में कारण का अस्तित्व मानना ही पड़ता है, और वह भी नियतपूर्ववृत्ति मानना पडता है । कारण के अभाव में कार्यसिद्धि कैसे मानें ? वेद रचना भी कार्य है तो उसकी 15
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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