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________________ तक सभी की जो मूर्तियाँ बनी है, वे सभी वीतराग भाव में ही बनी हैं । किसी के भी पास द्वेष के प्रतीक रुप शस्त्र नहीं हैं और किसी के भी पास या साथ राग के प्रतीक रुप में स्त्री-पत्नी नहीं है । उनके पास राग-द्वेष - दोनों के साधन ही नहीं हैं और इसीलिये वे महान् वीतरागी कहलाए हैं । स्तुति में ठीक ही - सत्य ही कहा है कि - प्रशमरस निमग्नं, दृष्टि युग्मं प्रसन्नम् । वदनकमलमंक कामिनि संग शून्यम् । करयुगमपियत्ते शस्त्र संबंध वन्धा । तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥ . अर्थात् हे भगवान् ! प्रशांत उपशम रस आपके दोनों ही नेत्रों में प्रवाहित है, प्रसन्न लगती हुई आपकी मुखाकृति के दोनों ही चक्षु प्रशांत रस में निमग्न - मस्त लगते हैं । आपकी गोद में कोई कामिनी भी नहीं है । कामिनी - स्त्री के. संसर्ग - स्पर्श से भी आप दूर हैं तथा आपके दोनों हाथों में कोई अस्त्र - शस्त्र भी नहीं है । ऐसे हे भगवान ! इस जगत में एक मात्र आप ही वितराग भगवान है। इस श्लोक से वीतरागी भगवान की स्तुति की है, परन्तु साथ ही स्पष्ट कारण बताते हुए स्तुति की है कि प्रभुराग और राग के साधनों से भी दूर हैं, तथा दूसरी और द्वेष तथा द्वेष के साधन-शस्त्रादि से भी अलिप्त सर्वथा दूर हैं । जिन में से राग-द्वेष सर्वथा चले गए हैं और साथ ही राग - द्वेष से सर्वथा दूर रहते हैं । रागद्वेष के निमित्त साधनों से भी अलिप्त रहते हैं, अतः उनकी वीतरागता कैसी ! कितनी उत्कृष्ट कक्षा की है । ऐसी उच्च कोटि की वीतरागता होने पर किसी को भी मारने का प्रश्न हि कहां रहता है ? स्वयं किसिको शत्रु मानते ही नही फीर मारने का विचार तक भी उनमें क्यों पेदा हो ? अतः इस सिद्धान्त के आधार पर हमें भी यही विचार करना है कि शस्त्र उठाकर अन्य की हत्या करने के बजाय शास्त्र हाथ में लेकर स्वयं मरना सीखें । शस्त्र दूसरों के प्राण-हरण करवाएंगे, जब कि शास्त्र हमें स्वयं को समाधि में रहकर मरना सिखाएँगे । मृत्यु भी सुधारने जैसी है । मृत्यु सुधरी तो सब सुधरा । दूसरों को मारने से हमारी मृत्यु नहीं सुधरेगी, अतः मारने के बजाय मरने की तैयारी करनी है । कैसे मरें ? क्या कुत्ते की मौत मरना है ? नहीं, नहीं ऐसा उत्तम मनुष्य जन्म प्राप्तकर अब तो समाधि मरण ही उत्तम मरण हैं । मरना तो पशु - पक्षी के जन्मों मे भी जानते ही थे, आता ही था, परन्तु अब जो सीखना है वह समाधि में रहकर पंडित मरण सीखना है । 362
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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