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उत्तराध्ययन सूत्र जैसे आगम हमें पंडित मरण की कला सिखाता हैं, अतः मारने के लिये शस्त्रों को अपनाने की अपेक्षा तो मृत्यु का वारण करने के लिये शास्त्रों को अपनाना लक्ष कोटि बढ़कर है । शस्त्र और शास्त्र दोनों ही शब्दों में एक मात्रा का ही अन्तर हैं, परन्तु विचार करें तो अर्थ की गरिमा में लाख गुना अन्तर ज्ञात होगा । अतः मारने वाले महान् सिद्ध नहीं होते - यह वास्तविकता हैं ।
कैसे अरिहंतो को नमस्कार :
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि नवकार महामंत्र में “नमो अरिहंताणं" पद से कैसे अरिहंतो को नमस्कार किया हैं ? न्याय युक्ति की स्पष्ट बात यही है कि जो अरिहंत हैं वे कभी भी किसी को मारें ही नहीं और जो अन्य को मारे वे कभी भी अरिहंत कहलाएँ ही नहीं । जैसे कि भूल करे वह भगवान नहीं और भगवान कभी भी भूल करे ही नहीं । दूसरे के प्राण लेना भी भयंकर भूल है । अतः ऐसी बड़ी भयंकर भूल भगवान कभी भी करे ही नहीं । इसीलिये जैन धर्म और दर्शन में तीर्थंकर अरिहंत भगवान को इन भूलों से अलिप्त-सर्वथा दूर ही रखा है । इसीलिये चौबीसों जैन तीर्थंकर भगवान के चरित्रों का अवलोकन करोगे तो स्पष्टतया ज्ञात होगा कि वे किसी को भी मारकर भगवान बनने का दावा करते ही नहीं है - अहिंसा के प्ररुपक के जीवन में इस प्रकार की क्षुद्रता का कोई औचित्य ही नहीं है ।
भगवान कौन बन सकता है ? कैसे भगवान बन सकते हैं ? क्या क्या करने से भगवान बनना शक्य है आदि सभी बातें जैन धर्म ने स्पष्ट रुप से बता दी हैं । इन सिद्धान्तों पर ही चलना उपयुक्त राजमार्ग हैं । इस प्रकार ही भगवान बना जा सकता है । हमें भी इस प्रकार इसी मार्ग पर चलकर भगवान बनना है - ऐसा निश्चय कर लो तो अवश्य बन सकते हो ।
जैन दर्शन में कोई भी आत्मा परमात्मा बन सकती है :
आत्मा ही जब परमात्मा बनती है, तो कोई भी आत्मा परमात्मा बन सकती है - इस कथन में जरा भी दोष नहीं है । हाँ, योग्यता पैदा करनी पड़ती है - यह बात शत प्रतिशत सच्ची है । जैन दर्शन एकेश्वरवादी नहीं, बल्कि अनेकेश्वरवादी दर्शन है । हिन्दू धर्म आदि अवतारवादी दर्शनों में एकेश्वरवाद की मान्यता पुष्ट बनी हुई है । ईश्वर एक ही है । वही ईश्वर सर्वसत्ताधीश है । वही पुन : पुन :
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