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उपशम - क्षमा के भाव से क्रोध का हनन करो, मृदुता - नम्रता के भाव से मान को जीतो, आर्जवता के भाव से माया को जीतो और संतोषवृद्धि से लोभ कषाय पर विजयी बनो - यह सीधा और स्पष्ट आदेश हैं ।
अब जरा विचार करके देखो कि इस में कहीं भी हिंसा की गंध है क्या ? विल्कुल नहीं.... यह तो संपूर्णतः पूर्ण अहिंसा की साधना है । इसीलिए जैन दर्शन अहिंसा प्रधान धर्म है । जैन धर्म के अरिहंत भगवंत भी पूर्ण अहिंसा स्वरुप भगवान हैं । उनके पास किसी भी प्रकार के अस्त्र शस्त्र है ही नहीं । उन्होंने इन्हें अपने पास रखा ही नहीं ।
अन्य जैनेतर देवताओं के पास शस्त्र-अस्त्र की भरमार दिखाई देती है । किसी के पास धनुष-वाण हैं, तो कोई त्रिशूलधारी हैं, किसी के पास सुदर्शन चक्र है, तो किसी के पास गदा है । किसी की कटि असि से सज्ज है । इस प्रकार सभी
जैनेतर देवताओं को हिंसक शस्त्र-साधनों से सज्ज रखा है और उन्हें उस स्वरुप में भगवान माना हैं । इतना ही नहीं जो शस्त्रादि रखे हैं उनका उपयोग भी बताया है । अर्थात् उन शस्त्रों का उपयोग क्या होगा ? एक मात्र दूसरों की हत्या के लिये ही होना है न । अन्यों को मारने में भी कितनी बड़ी संख्या में मारने का कार्य किया है । इतनी बड़ी संख्या में मारने के लिये भयंकर युद्ध करने पड़े है, अर्थात् भगवान बनकर उन्हें युद्ध करने और करवाने पड़े है, अथवा तो ऐसा भी कहा जाता है कि इतने बड़े बड़े भयंकर युद्ध लड़कर और जीतकर वे भगवान बन पाए हैं।
क्या युद्ध छेड़कर और जीतकर भगवान बनना शक्य है ? क्या इस प्रकार विजयी सम्राट बनना संभव है ? यदि युद्ध जीतकर ही भगवान बनना शक्य हो, तब तो मुगल बादशाओं ने भी अनेक युद्धों में विजय पायी है, तो क्या कल से उन सभी को भगवान कहने लगें ? नहीं... नहीं.. तब तो अनर्थ हो जाएगा । अतः किसी भी प्रकार की हिंसा युद्ध मारने आदि की प्रवृत्ति करने, करवाने से कभी भी भगवान नहीं बना जाता । यदि हिंसा - युद्ध के मार्ग पर चलने से भगवान बनना शक्य होगा तो फिर क्रूर हिंसक और पापी किस मार्ग से हो सकेंगे ? इसके लिये तो फिर कोई भी मार्ग शेष ही नहीं रहेगा ।
सामान्य हिंसा भी घोर पाप-कर्म बंध करवाती है । जीवात्मा किसी भी प्रकार की सामान्य छोटी सी भी हिंसा करक जीवों का वध करे - उन्हें मारे तो भी पाप लगता है कर्मबंध होता है, तो फिर जिन युद्धों में अक्षौहिणी अर्थात करोड़ो की सैना मृत्यु का कौर बन गई, उस हिंसा का पाप कितना बड़ा होगा ? कितना
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