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________________ भवसागर में वृद्धि होती है और अनेक भव करने पड़ते हैं । इसीलिए अरिहंतो ने आत्म शत्रुओं के हनन की प्रक्रिया ही अपने जीवन में साधी और इसी का उपदेशजगत को दिया । आत्मा के साथ जुड़े हुए और सबंद्ध आभ्यंतर कक्षा के अरिगण - (रिपुगण) काम, क्रोध, मान, माया, लोभ ईर्ष्या, राग-द्वेष, वैर - वैमनस्य आदि हैं, जिनसे आत्मा के गुण दब चुके हैं, और हमें इन्हीं का हनन करना है । इनके हनन में हिंसा नहीं - बल्कि अहिंसा ही है। लोगों ने जिन्हें बाह्य शत्रु . . : है उनकी हत्या करने में तो हिंसा है - पाप है, जबकि अन्तरात्मा में जो कम शत्रु पडे हुए हैं, अथवा जिन राग-द्वेषने अन्तरात्मा को दबोच रखा है, उनके हनन-निवारण में शस्त्रादि की कहीं भी सहायता नहीं लेनी पड़ती है। . . आत्म-बाह्य अर्थात, बाहरी शत्रुओं का हनन करने के लिये, हिंसादि की बुद्धिपूर्वक शस्त्रादि की सहायता लेनी पड़ती है, जब कि आभ्यंतर कक्षा के आत्म रिपु-राग द्वेषादि का हनन करने में क्षमा - समतादि की बुद्धि से शास्त्र की सहायता लेनी पड़ती है । बाह्यशत्रु की हत्या के लिये शस्त्र और आत्म शत्रु की हत्या के लिये हैं शास्त्र । अरिहंत शब्द आत्मअरिओं के हनन की बात करता हैं । आत्मा के अरिओं - रिपुओं का सामूहिक नाम है - राग - द्वेष । पाप कर्मों के तो अनेक नाम हैं, परन्तु सभी पाप-कर्मों का संक्षिप्तिकरण करके 'राग द्वेष' नामक दो शब्दों में ही सभी का समावेश कर लिया गया है । ऐसे काम-क्रोधादि राग-द्वेष रुपी अरिओं का हनन करने के लिये तीर-तलवार आदि शस्त्रों की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि इनके हनन के लिये तो शास्त्रों की आवश्यकता होती है । शास्त्रों में क्या है ? ज्ञान है, अतः शास्त्र वाचन, शास्त्र-स्वाध्याय, शास्त्र श्रवण-मनन-निदिध्यासन आदि करके उनमें से क्षमा, समता, नम्रता, सरलता, संतोष आदि भावों की शक्ति आत्मा को अंकुरित कर, उसका पोषण और विकास करना पड़ता है तथा उस शक्ति के माध्यम से राग-द्वेषादि आत्मा के शत्रुओं का हनन करना पड़ता है, उन पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है । इस कार्य में हिंसा कहाँ हुई ? इस में तो पूर्ण अहिंसा का ही पालन है । अतः अहिंसा पालन ही धर्म है । दशवैकालिक आगम स्पष्ट रुप से बनाते हैं कि .... उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । . . . मायं चाज्जव भावेण, लोभं संतोषओ जिणे । 356
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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