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मरने वाले को अरिबंध हुआ या न हुआ इसका पता नहीं परन्तु मारने वाले को तो अरिबंध - कर्म बंध शत प्रतिशत होता ही है, क्योंकि मारने वाला तो हिंसक बुद्धि-अशुभ विचारधारा करके ही मारता है, उसके मन में कषाय अशुभ लेश्या, क्रूरता आदि अनेक दुर्भावनाएं जागृत होती हैं । द्वेष बुद्धि का निर्माण होता है, तब वह विपक्षी को मारता है, अतः मारने वाला तो अनेककर्म बाँधता है । दूसरी ओर संभव है कि मरने वाली आत्मा - जीव समताभाव में, क्षमाशील बनकर, शांत चित्त से, परिषह - उपसर्ग सहन करती करती मृत्यु काल निकट है ऐसा जानकर अपनी साधना करके भी मरता हो तब तो वह तो अपने अरिओं कर्म शत्रुओं का अमुक किसी निश्चित् अंश में हनन करके मरता होगा । वह तो अपनी कर्म निर्जरा करता करता भी जाता होगा, जब कि उसे मारने वाला तो कर्म बाँधता ही है । इसीलिये बाह्य शत्रुओं को मारने वाले अरिहंत नहीं कहलाए, न उन्हें भगवान माना गया हैं । अतः अरिहंत शब्द एक मात्र आभ्यंतर - आंतरिक शत्रुओं का ही हनन करने का सूचन करता है । यही उसका सच्चा अर्थ है, और आंतरिक शत्रु एक मात्र कर्म के सिवाय अन्य कोई नहीं ।
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अरिहंत शब्द से अहिंसा धर्म की सिद्धि
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अपने बाह्य शत्रुओं को शस्त्रादि से मारना - हिंसा है । हिंसा पाप है । हिंसाचार - पापाचार से पुन: नवीन कर्मबंध होगा । अतः जैन धर्म अथवा जिनेश्वर भगवंतो ने कहीं भी अन्य बाह्य शत्रुओं को मारने की आज्ञा दी ही नहीं हैं, ऐसी आज्ञा देने की होती भी नहीं । ऐसी आज्ञा वे क्यों दें ? उन्होंने स्वयं जो साधना की है वह एक मात्र आत्म शत्रु जो कि कर्म है, उनके ही हनन करने की प्रक्रिया की है । उन्होंने कभी भी बाह्य शत्रुओं का हनन नहीं किया । इतना ही नहीं बल्कि जो जो उनकी हत्या करने के लिये आए उन्हें भी समभावपूर्वक शांत चित्त से ध्यानावस्था में स्थिर रहकर जीते हैं - उन्हें मारे नहीं, क्यों कि अन्य की तीर - तलवारादिशस्त्रों से हत्या करने में द्वेष बुद्धि आवश्यक है । द्वेष वृत्ति ही अन्य को शत्रु के रुप में दिखाती है और फिर क्रोधादि कषायभाव भी होने चाहिये । उसके बाद ही शस्त्रादि से अन्य का वध हो सकता है । ऐसे वध करने से महान् तो नहीं बना जाता बल्कि अनेक कर्मों के भार से आत्मा बोझिल हो जाती है । ये कर्म ही आत्मा के शत्रु हैं । इस प्रकार की बाह्य हिंसा की प्रवृत्ति से वैर-वैमनस्य में अभिवृद्धि होती है और फिर यह परम्परा यदि आगे बढ़ती ही जाती है तो
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