SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं, क्यों कि जिसका आचरण अरिहंत भगवंतो ने उनके जीवन में किया है, जिस मार्ग पर चलकर वे महापुरुष अरिहंत बने हैं वही मार्ग हमारे लिये आचरणीय है - उपादेय है । यही हमारी साधना का साधन है । उनका सहारा हमें इसलिये लेना है कि जो उन्होने किया है, वही हमें भी करना है, हमें भी अरिओं का हनन करके अरिहन्त और तत्पश्चात् सिद्ध बनना है । अरिओं का हनन करना ही शाश्वति प्रक्रिया हैं । भगवान का धर्म शाश्वत क्यों है ? क्यों कि परमात्मा बनने वाले प्रभुने आज तक एक मात्र अरिओं का हनन करने की ही प्रक्रिया की है, जीवन में एकमात्र इसी का आचरण किया है, तब कहीं अरिओं - कर्मरिपुओं का नाश हुआ है, तब आत्मा परमात्मा बनी है । बस, इसी प्रक्रिया का लक्ष्य हमें भी रखना है - यही शाश्वत धर्म है - साध्य है और ऐसा करके ये परमात्मा बन सके हैं, अतः हमें भी उन्ही का अवलंबन ग्रहण करना हैं उन्ही का ध्यान धरना है । उन्ही की भक्ति और उपासना करनी हैं । बाह्य अरिओं का नाश नहीं - · जिन्होंने आंतरिक कक्षा के आत्मा के अरिओं का नाश नहीं किया उनकी आराधना उपासना हमें नहीं करनी है । जिनके अरिगण उनकी आत्मा पर ढ़ेर सारे ज्यों के त्यों छाए हुए हैं, उनकी आराधना करने का क्या प्रयोजन ? जिन्होंने आराधना की विपरीतता साधी हो अर्थात् अन्तर्कक्षा के आत्मिक कर्मरुपी अरिओं का नाश न करके मात्र बाह्य शत्रुओं का ही नाश किया है, वे अरिहंत कहलाने के अधिकारी ही नहीं है । उनकी आत्मा पर तो अरिगण कर्म रिपुगण यथावत् रहे हुए हैं; उनके नाश करने की बात तो दूर रही, बल्कि ऊपर से उनमें वृद्धि ही हुई है, क्योंकि बाह्य शत्रुओं का नाश करने के लिये उन्होंने तीर, भाले, तलवार त्रिशूल आदि शस्त्रों का उपयोग किया है । विपक्षी को शत्रु मानकर उनकी हत्या की है, उनका वध किया है । ऐसी हिंसा करके तो उन्होंने अनेक पापकर्म किए हैं और इसके परिणाम स्वरुप उन्होंने अनेक प्रकार से कर्मबन्धन किया है । अतः बाह्य शत्रुओं का नाश करने के प्रयास में आत्मा पर आंतर- कर्म शत्रुओं का परिमाण बहुत अधिक बढ जाता है । इस प्रकार अरिहंत की प्रक्रिया नहीं हुई, बल्कि यह तो अरिबंध की प्रक्रिया हो गई । अरिबंध में अरि-कर्म-शत्रु और उसे बाँधने की प्रक्रिया अरिबंध कहलाती है, जब कि नवकार का आदेश तो अरिहंत का है न कि अरिबंध का । अरिबंध अधर्म है - पाप मार्ग है । 1 - - · 354
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy