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भक्ति - नमस्कार आदि के अवलम्बन से अपनी आत्मा आदि को पहचान लें यही पर्याप्त है, यही उपयोगी है, क्यों कि बिना पहचाने इन कर्मों का हनन 'हंत' हम कैसे कर सकेंगे ?
कर्मनाश ही धर्म है - यही साध्य है : ____ कर्मों का नाश करना, और अरि का हनन करना ये दोनों एक ही बात है शब्द - रचना भिन्न अवश्य है, परन्तु अर्थ समान हैं । कर्म को ही अरि कहते है और हंत क्रिया का ही अर्थ है नाश करना । इस प्रकार नवकार के प्रथम पद 'नमो अरिहंताणं' में यह अद्भुत तत्त्वज्ञान भरा हुआ है । समग्र जैन शासन की आराधना का हार्द यही है कि प्रत्येक जीव को अपने अरिओं (कर्मों) का हनन करना चाहिये । इन अरिओं के हनन की क्रिया का नाम ही धर्म है कर्मो का हनन करने के लिये ही धर्म है - धर्म का अस्तित्व है । धर्म एक नितान्त अनिवार्यता है। यदि - अरिओं का हंत (नाश) करने का लक्ष्य न हो तो धर्म की कुछ भी उपयोगिता नहीं रहती । संयुक्त शब्दवाला 'अरिहंत' ही हमारा साध्य है - लक्ष्य है
और अरिहंत बने हुए प्रभु हमारे आराध्य देव-अवलम्बन स्वरुप भगवान भी ये ही है । वे स्पष्ट कहते हैं कि 'कम्म कलंक- विप्पमुक्को परमप्पा भण्णए देवो' - कर्मरूपी कलंक से मुक्त बनी हुई आत्मा ही परमात्मा भगवान कहलाती है । इन कर्मों को आत्मा पर कलंक के रुप में बताया गया है और यह वास्तविकता भी है
अरिहंत में से सिद्ध की ध्वनि : . 'अरि' अर्थात् कर्म - आत्म शत्रु - इनका सर्वथा संपूर्णतः यदि हनन - नाश कर डाले तो वह कर्ता जीव सिद्ध स्वरुपी कहलाता है, क्यों कि सिद्धात्मा लेशमात्र भी कर्मयुक्त नहीं होते हैं | वे सर्वथा - संपूर्णतः कर्मरहित ही होते हैं - अर्थात अरि का हंत - हनन ही हो जाने के पश्चात् शेष रहता ही क्या है ? कर्म का अंश तो शेष रहता ही नहीं, परन्तु कर्मों का नाशकर्ता एक मात्र शेष रहता हैं और वह है कर्म रहित आत्मा बस, उसे ही सिद्धात्मा कहता है । इस प्रकार अरिहंत शब्द में से सर्वसिद्ध की ध्वनि स्पष्ट निकलती हैं।
दूसरी ओर अरिहंत अर्थात् सिद्ध नहीं परन्तु संसार की धरा पर विचरण करते हुए केवलज्ञानी सर्वज्ञ - वीतरागी भगवान । इसका अर्थ कैसे निकालेंगे? क्यों कि 'अरिहंत' शब्द से प्रथम यह अभिप्रेत है । सिद्ध के लिये तो 'नमो
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