SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धाणं' पद दूसरे क्रम पर प्रयुक्त हुआ ही है । अतः कहते हैं कि सर्वथा - संपूर्णतः - समग्र रुप से जिनके कर्मों का नाश हो गया हैं वे सिद्ध । सर्वथा नहीं - संपूर्णतः नही, परन्तु अर्धांश में जिनके कर्मो का नाश हुआ हो, तो उन्हें अरिहंत कहते हैं। इस विवक्षा से जिनके ४ घाति कर्म नष्ट हो चुके हैं उन्हें अरिहंत कहते हैं और जिनके आठों ही कर्म नष्ट हो चुके हो, उन्हें सिद्ध भगवान कहते हैं । तीसरे अर्थ में अरिहंत शब्द से जीव की सिद्धि होती है । अरिहंत अरिओं का सम्पूर्णतः सर्वथा, सर्वांश में नाश करके कर्मरहितं बननेवाले सिद्ध भगवंत - यह प्रथम अर्थ सिद्धों की सिद्धि करता है । दूसरे अर्थ में अर्धांश में अरिओं का हंत नाश करने वाले अरिहंत तीर्थंकर भगवन्तो की सिद्धि होती है, तीसरे अर्थ में भी अर्थ की प्रक्रिया नहीं बदलती है । अर्थ की प्रणाली यही रहती है । मात्र परिमाण बदलता हैं । अरि + हंत अर्थात् अरि आत्मरिपु - कर्मो का अल्पांश में हन्त-हनन नाश करनेवाला सामान्य जीव भी सिद्ध होता है, तथा आचार्य, उपाध्याय, साधुभी सिद्ध होते हैं, क्यों कि उन्होनें अल्पांश में ही कर्मों की निर्जरा की है, इसीलिये आचार्य, उपाध्याय और साधु बन सके हैं, जबकि आत्मा पर लगे हुए कर्म रुपी अरिओं का अल्पांश में भी 'हन्त' - हनन करने वाला कौन है ! तो इसका उत्तर एक जीव ही है । 'हन्त' धातु है । धातु क्रियात्मक है । उसका कर्ता जीवात्मा स्वयं होता है, अतः अरिहंत शब्द जीवात्मा की पुष्टि करवा देता है । इस प्रकार आत्मा ही परमात्मा बनती है । अल्पांश में अरिओं का हनन करने वाला जीवात्मा, अर्धांश में हनन करने वाले अरिहंत परमात्मा और सर्वांश में हनन करने वाले सिद्धात्मा होते हैं और इन तीनों ही में आत्मा ही है वही कर्ता है । तीनों स्वरुपों में आत्मा की ही सिद्धि होती है । जीवात्मा - हम संसारी जीव हैं जो अल्पांश में कर्मों का हनन करते हैं, अर्धांश में निर्जरा करने वाले अरिहंत परमात्मा होते हैं और सर्वांश में निर्जरा करने वाले सिद्धात्मा होते हैं । इन तीनों ही प्रकार की आत्माओं की सिद्धि यह एक अरिहंत शब्द करता हैं । अरिहंत से साध्य - साधना की सिद्धि : ___'अरिहंत' अरि + हन्त = अरिओं का हनन - नाश करना । इस पद में हमारी समस्त साधना का चरम साध्य ही यह है कि में अपनी आत्मा पर लगे हुए आत्म विरोधी विपरीत गुणवाले जो कर्म हैं, उनकी सम्पूर्णतः निर्जरा करके - हनन - नाश करके सिद्धात्मा बनें - यही हमारा साध्य हैं - लक्ष्य है - Ultimate Goal 352
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy