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में रहे अब नवकार की साधना द्वारा भी अज्ञान - मिथ्यात्व भस्मीभूत हुआ है ।
और अध्यात्म विज्ञान प्रकट हुआ हो, आत्माज्ञान जागृत हुआ हो, सम्यग्ज्ञानावस्था की प्रादुभाव हुआ है । तो सर्व प्रथम विपरीत विचारणा को बदल कर हमें समझ लेना चाहिये कि कर्म ही आत्मा के शत्रु हैं, क्यों कि कर्म ही आत्मा को इस संसार में कठपुतली की तरह नचाते हैं, कर्म ही हमें सुखी - दुःखी करते हैं, कर्मो के संयोग से ही जीव उच्च-अधम गोत्र-जाति, कुलादि में जाता है, कर्म के कारण ही जीव को ८४ लक्ष जीवयोनियों में, चारों ही गतिओमें भ्रमण करना पड़ता हैं, कर्म के कारण ही ज्ञानी - अज्ञानी बनना पडता है। कर्म के कारण ही राजा-रंक, धनीनिर्धनादि की विषमता प्राप्त होती है, यह कर्म ही हमें सांसारिक बंधनों में जक्कड़ कर रखता है । कर्म ही आत्मा को हानि पहुँचाता है अतः कर्म ही हमारे भयंकर शत्रु है। शत्रु शब्द के ही पर्यायवाची शब्द अरि और रिपु हैं । इन अरिओं रिपुओं को भली प्रकार पहचानना अत्यन्त आवश्यक हैं । मेरे ही शत्रु को यदि मैं नहीं पहचानता हूँ तो इसमें मेरी कितनी बड़ी अज्ञानता कहलाएगी ? कर्म का क्या बिगड़ने वाला है ? कर्म तो वैसे भी जड पुद्गल परमाणु मात्र हैं - इनका क्या अहित होगा ? परमाणु स्वरुप में थे - वे आत्म प्रदेशों के साथ जुडे, पिंडरुप में एक रस बने और आत्मा निर्जरा करके आत्मा से इन्हें पृथक करके बाहर निकाल फेंकेगी तो ये तो पुनः पुद्गल परमाणु स्वरुप में ही रहेंगे । अतः जो जड़ हैं, उनका क्या बिगड़ने वाला है ? परन्तु ज्ञानवान कर्ता भोक्ता भाव में जो आत्मा है, उसी का सब कुछ बिगड़ता है । ज्ञान नादि गुण आत्मा के ही आच्छादित होते हैं
और आत्मा ही अज्ञानी - मिथ्यात्वी कहलाती है । अनंतज्ञानी पर अज्ञानी अथवा मिथ्यात्वी का आरोप होता है । क्या यह छोटा सा - नगण्य आरोप है ? सम्यक्वशाली पर मिथ्यात्वी का आरोप हो, अनंत शक्तिशाली पर कायर का प्रभुत्व हो क्या यह साधारण बात है ? इस प्रकार आत्मा पर ये सभी आरोप करने वाला कौन है ? यह अन्य कोई नहीं बल्कि एक मात्र कर्म ही है। कर्म के सिवाय हमारा अहितकर्ता अन्य कोई भी नहीं है । यह वस्तु स्थिति भली प्रकार समझ लेनी चाहिए । अपने ही शत्रु भाव में कर्मो को पहचानना अनिवार्य है । आत्मा के सभी ज्ञानादि गुणों और स्वभावादि से सर्वथा विपरित व्यवहार करने वाले, सब प्रकार से आत्मा का अहित करने वाले कर्म को शत्रु नहीं तो और क्या कहा जाए? अतः इतना तत्त्वज्ञान नवकार के प्रथम पद 'नमो अरिहंताणं' में से अरि + हंत = अरिहंत शब्द में से अरि शब्द के अर्थ से ग्रहण करना है। हम अरिहंत की
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