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'अरि' के रुप में कर्मो को पहचानों :
अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुपट्ठिय सुपट्टि ओ । उत्त् २०/३७ ॥ उत्तराध्ययन सूत्र की अंतिम देशना में चरम प्रभु फरमाते हैं कि अपनी आत्मा स्वंय ही स्व दुःख - सुख की कर्ता हैं, और यह स्वंय ही कर्मो का क्षय कर्ता भी है | शुभ कर्म का आचरण करनेवाली आत्मा स्वयं ही स्वयं की मित्र है और अशुभ पापाचरण करके अशुभ कर्मोपार्जन करती - आत्मा स्वंय ही अपनी शत्रु है । इस प्रकार एक बात तो निश्चित हुई कि अपने शत्रु - मित्र बाह्य जगत में अन्य कोई नहीं है, बल्कि हमारी आत्मा ही हमारी मित्र है और यही हमारी शत्रु भी है - अर्थात् आत्मा राग - द्वेषाधिन स्थिति में सतत कुप्रवृत्तिओं में आसक्त है। जब आत्मा शुभ निर्जरा की क्रिया में मग्न बनकर कर्म - पुद्गलों को झाड़ देती है - आत्मप्रदेशों से अलग करके बाहर फेंक देती है, तब ऐसा सुंदर कार्य करने वाली आत्मा स्वयं पर ही उपकार करने वाली मित्र बन जाती है । इससे बिल्कुल विपरीत रीति से व्यवहार करने वाली आत्मा जब हेय-त्याज्य पापाचरण की क्रिया करती हो और उसमें ढेर सारे पाप करके अशुभ कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को आकर्षित कर आत्मा में खींचती जाती है, उन्हें आत्म प्रदेश के साथ एक रस करके कर्म पुंज में वृद्धि करती जाती है, उसमें स्वंय ही अपने आत्मगुणों को आच्छादित कर कर्माधिन बन जाती है तब आत्मा स्वयं ही अपना अहित करने वाली शत्रु बन जाती हैं ।
प्रभु ने ये भाव मानने - स्वीकार करने की सलाह दी है । जरा सी असावधानी या भूल - चूक से भी बाह्य जगत के बाह्य लोगों को शत्रु-मित्र मानना नहीं । यह मेरा मित्र है, यह मेरा शत्रु है -ऐसे विचार करने से निरर्थक हमारे राग-द्वेष में भारी अभिवृद्धि हो जाएगी और बड़े भीषण कर्मों का बंधन होगा, अतः अन्य को या पराये को शत्रु-मित्र मानने के बजाय अपनी ही आत्मा को अपने शत्रु - मित्र मानना ही हितकारी है । ऐसी ही दृष्टि बनानी होगी ।
घोर मिथ्यात्व - विपरीत ज्ञानवश जीव अनादि काल से ऐसा ही मानता आया है कि - अन्य ही मेरे मित्र और शत्रु है । यह मेरा बिगाड़ता है और यह मेरा सुधारता है, यह मेरा हित करता है और वह मेरा अहित करता है, ऐसे विचार करते करते बड़ा ही दीर्घकाल व्यतीत कर दिया और इसी विचार धारा में भयंकर कर्मो का उपार्जन करने वाले जीव ने आज तक अज्ञानतावश ऐसी ही विचार धारा
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