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बलिहारी इतनी प्रबल है कि जन्म-जन्मांतर में जीव स्वयं ही अष्ट मदादि का सेवन करके अभिमानादि करके स्वोपार्जित गोत्र कर्म के कारण नीच गोत्र का शिकार बन जाता है । यह गोत्र कर्म हल्का कुल, हल्की - नीच जाति में जन्म दिलवाता है अथवा उच्च गोत्र कभी अच्छे उच्च कुल में जन्म दिलवाता है । इस प्रकार आत्मा अगुरुलघु गुण का हनन करके आत्मा को उच्च - अधमकुल में डालने वाला कर्म आत्मा का शत्रु नहीं, तो क्या उसका मित्र होता है ?
(७) अव्याबाध - सुख गुण - अनन्त अव्याबाध सुख के स्वभाववाली आत्मा को उसके स्वंतत्र स्वाधिन स्ववश सुख में भी निमग्न न रहने देकर उस गुण पर भी आक्रमण करने वाला वेदनीय कर्म आत्मा को दुःख के कटुफल चखाता है । जो आत्मा आनन्द में निवास करने वाली सच्चिदानंद स्वरुपी है,
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उसे यह भयंकर वेदनीय कर्म पल में सुख और पल में दुःख की अनुभूति करवाता है, नरक के नारकीय जीवों को सतत वेदना का अनुभव करवाता है, तिर्यंच गति . के पशु-पक्षियों के पीछे हाथ धोकर पड़ा है, मनुष्यों को भी धूप और छाया की भाँति सुख-दुःख में क्रीड़ा करवाता है, वेदना - पीडा - क्लेश आदि भयंकर दुःखो की अनुभूति करवाता है । अतः यह वेदनीय कर्म भी आत्मा का मित्र नहीं बल्कि रिपु
हैं ।
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( ८ ) अक्षय स्थिति गुण अन्तिम और आठवाँ आयुष्य कर्म भी आत्मा की स्वतंत्रता पर अपना अंकुश जमाता है । किसी से भी न बँधी हुई आत्मा आयुष्य कर्म के बंधनों में निश्चित वर्षों तक कारावास की भाँति एक-एक शरीर में सजा भुगतती हैं । लोहे की सलाखाओं के पीछे कारागृह में जिस प्रकार कोई अपराधी निश्चित् वर्षों तक दंड भोगता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा भी गज अश्व - ऊँट - वृषभ - चींटी मकोड़े मनुष्य देव नारक आदि सभी जाती के शरीरोंमें रहकर उतने वर्षो तक आयुष्य काल पर्यन्त सजा भोगता है । जेल रुप एक शरीर में रहता है, तंग आ जाता है, फिर भी मुक्त नहीं हो सकता । स्वेच्छानुसार विहार करनेवाली स्वतंत्र आत्मा जो मोक्ष में अनंतकाल तक स्वतंत्रतापूर्वक रह सकने की क्षमता रखती है, परन्तु इसे निरर्थक ही यह आयुष्य कर्म कुछ कुछ वर्ष सभी गतियो के सभी शरीरों में रख कर जन्म मरण के खेल खिला कर नचाता रहता हैं । ऐसे आयुष्य कर्म को मित्र नहीं बल्कि शत्रु ही मानना पड़ता है ।
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