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रुप से सब कुछ देख सकती है, परन्तु इसे भी कर्म आवृत कर लेते हैं । यह कार्य करनेवाला दर्शनावरणीय - कर्म आत्मा की देखने की शक्ति का हर्ता होने से शत्रु रिपु कहलाता है।
(३) यथाख्यात चारित्र गुण - आत्मा अपने ज्ञानादि स्वरूप में मस्त रहती है - लीन रहती है । कर्मों से यह भी सहन नहीं होता और वे आत्मा के तीसरे गुण-अनंत चारित्र पर आकर चिपक जाते हैं, जैसे कि आत्मा का गला घोंटकर उसके पास सर्वथा विपरीत व्यवहार ही करवाते है । जो मेरा नहीं है उसे मेरा मान
और जो अपना है उसे भूल जा । पराए को अपना मान और उसी में प्रसन्न हो । पुद्गल पदार्थों को अपने मानकर उन पर प्रसन्न हो। मुग्ध हो । ऐसा कार्य करवाकर आत्मा को मोहित कर लेता है । अतः उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । यह भी आत्मा का भयंकर शत्रु है । मद्य-पान किए हुए व्यक्ति की तरह इस कर्म से प्रभावित व्यक्ति सब विपरीत व्यवहार ही करता है। .
(४) अनंत शक्ति गुण - अन्तराय कर्म यह आत्मा की सभी शक्तियों को ही आवृत कर लेता है। आत्मा तो अनंत वीर्यवान् है, दान-लाभ-भोग-उपभोगवीर्यादि सभी अनंत शक्तिशाली आतमराम अपनी शक्तियों का उपयोग करके समस्त ब्रह्मांड को कंपायमान - चलायमान कर सकता इतनी शक्ति उसमें हैं, परन्तु ढेर सारे कर्म आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में चिपके पड़े हैं जिन्होने आत्मा की सारी ही शक्तिओं को कुंठित कर रखा है । ऐसा और इतना विपरीत कार्य करके आत्म गुणों की शक्तिओं का गला घोंटने वाले कर्म को आत्मा का शत्रु न कहें, तो क्या उसे मित्र कहें ? , . (५) अनामी - अरुपी गुण - आत्मा अनामी - अरुपी - निरंजन - निराकार है । नाम रहित, रुप-रंग विहीन, अशरीरी, किसी भी प्रकार के आकार से रहित है । ऐसे विशिष्ट गुणों से युक्त आत्मा को भी नाम कर्म रुप - रंग - शरीर-अंगोपांग - जाति आदि संसार में रहने योग्य सभी साधन - सामग्री देकर पक्का संसारी बना देता है, जिसके कारण अब लोग उसे आत्मा न कहकर हाथी, घोड़ा, बैल, बंदर, स्त्री, पुरूष, देवी - देवता, भूत-प्रेत, पिशाचादि प्रकार से रुपरंग-जाति. आदि से पहचानते हैं । यह सब नाम कर्म के कारण है । इसने भी आत्म-गुण को हनन कर रखा हैं।
(६) अगुरु - लघु गुण - आत्मा छोटी भी नहीं और बड़ी भी नहीं। यह हल्की भी नहीं और भारी भी नहीं । न यह उच्च है न यह निच है, परंतु कर्म की
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