________________
२.
टी
४.
अन्त
गुणों को जो ढक दे - आवृत कर ले - उसे कर्म कहते है । कर्म अजीव के गर के पुद्गल परमाणुओं से निर्मित होते हैं जो कि जीव के स्वभाव और स्वरूप से विपरीत स्वभावी होते हैं । वे आत्मा के गुणों को आवृत कर लेते है । पुद्गलपरमाणुओं के नाम होते होंगे क्या ? नहीं होते हैं । अतः वे पुद्गल-परमाणु एक पिंड बनकर जिस आत्मा के गुणों को आवृत्त कर डालते हैं वे उन गुणों को आवृत्त करने वाले नामोंसे कर्मो से पहचाने जाते हैं । अतः आत्मा के आठ गुणों के आधार पर उसे उन्हें आवृत्त करने वाले कर्म भी आठ हुए जिनके नाम इस प्रकार रखे गए हैं - आत्मा के ८ गुण
गुणों को आवृत्त करनेवाले.८ कर्म १. अनंत ज्ञान
१. ज्ञानावरणीय कर्म २. अनंत दर्शन
दर्शनावरणीय कर्म ३. अनंत (यथाख्यात) चारित्र ३. मोहनीय कर्म ४. अनंत वीर्य
४. · अन्तराय कर्म ५. अनामी-अरूपीपन ५. नाम कर्म ६. अगुरु - लघु ६. गोत्र कर्म ७. अनन्त(अव्याबाध) सुख ७. वेदनीय कर्म ८. अक्षय स्थिति
८. आयुष्य कर्म इतने विवेचन से स्पष्ट समज में आ जाएगा कि ये आठों ही कर्म आत्मा के ८ गुणों पर आवरण डालकर रोकने वाले हैं अतः ये अरि-रिपु या शत्रु के स्वरुप में जाने जाते हैं ।
(१) ज्ञान गुण आत्मा का जो अनंतज्ञान प्रकट होता है और उससे अनंत लोकालोक के सभी पदार्थ जाने जा सकते हैं - ज्ञान का कार्य पहचान करवाने का है । ज्ञान आत्मा का खजाना है | ज्ञान से जाना जाता है । उस ज्ञान गुण को ढक देने - आवृत्त कर देने का कार्य ज्ञानावरणीय कर्म करता है, यह कर्म ज्ञान को दबा देता है । इसके परिणाम से आत्मा अपनी शक्ति होने पर भी पदार्थो का सच्चा स्वरूप जान-(समझ) नहीं सकती है । इस प्रकार कर्मने आत्मा के साथ शत्रुता का ही व्यवहार किया या नहीं? विपरीत वर्तन करने से कर्म अरि - रिपु के रुप में जाने - पहचाने जाते है - यह बात बिल्कुल सच ही और न्याय संगत कहलाती है।
(२) दर्शन गुण - यह आत्मा का दूसरा गुण है । इस से आत्मा जिन जिन विषयों को जान सकती है, उन उन विषयों को देखने का कार्य करती है । स्पष्ट
346