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कषायादि अथवा राग-द्वेषादि जो आत्मा का गला घोटकर बैठे है, आत्म-गुणों को पच्छन्न कर बैठे है उन्हें प्रकट होने ही नहीं देते है । अतः प्रथम कार्य तो यही करणीय है । वास्तव में विचार करें तो यह बात शत प्रतिशत सच्ची लगती है । सत्य स्थिति है, वास्तव में करने योग्य तो यही है, जब कि भ्रमवश, अज्ञानतावश हम बाह्य जगत के शत्रुओं के पीछे अपना सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ गवा देते हैं और परिणाम शून्य रहता है, आत्मा को शान्ति तो मिलती ही नहीं है ।
'अरिहंत' शब्द में ही अरिहंत बनने की प्रक्रिया है :
नवकार महामंत्र का प्रथम पद 'नमो अरिहंताणं' है । इस पद में प्रयुक्त अरिहंत शब्द ही आत्मा को अरिहंत बनने की प्रक्रिया सिखाता है । यह आदेश देता है कि हे साधक ! तुझे क्या साधना है । तेरा साध्य क्या है ? तुझे क्या करना है ? इन सभी प्रश्नों के उत्तर एक ही 'अरिहंत' शब्द में दे दिये गए है । 'अरि' काम - क्रोधादि जो तेरे अन्दर आत्म रिपुगण हैं, उनका हंत - हनन कर । उन्हे दूर कर दे, उनका नाश कर दें ! यहाँ अन्य किसी धातु का प्रयोग न करके ‘हन्' धातु का ही प्रयोग किया है जिसका आशय है - दमन कर दे, दूर कर दे, निकाल बाहर कर दे आदि शब्दों का प्रयोग नहीं किया, उस अर्थ वाली धातु का प्रयोग नहीं किया क्यों कि मात्र दूर ही करना हो तब तो जिन्हें आज दूर किया है वे कल पुनः आकर प्रवेश कर डालेंगे । यही अर्थ निकाल कर, दबा दे आदि में भी प्रतिध्वनित होता है ।
दूसरे प्रकार से विचार करने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा के काम-क्रोधादि अरिओंको दबाने का निकाल बाहर करने का, दूर करने का कार्य तो अनंत बार किया है, क्यों कि प्रत्येक जीव नित्य-प्रतिदिन निर्जरा भी करता है,भले ही अकाम निर्जरा करता हो । पर करता अवश्य है । इस अकाम निर्जरा से भी कर्म रिपु थोड़े बहुत तो दूर होते है, नित्य दबते हैं, परन्तु बहुत ही अल्प समय में लौटकर आत्मा के सथ पुनः चिपक जाते हैं, आत्मा को दबोच लेते हैं, क्यों कि नित्य आत्मा की कर्मबंध की - पापाश्रवादि की प्रवृतियाँ तो चलती ही रहती हैं, अतः नित्य कर्मबंधन तो जारी ही है । नित्य अकामादि निर्जरा में नाम मात्र भी थोड़ी सी निर्जरा भी है जीव मात्र करता ही है, परन्तु इससे, अरिहंत बनना शक्य नहीं है । इसीलिये अरिहंत शब्द में अरि के बाद हंत शब्द हन् घातु का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है हनन करना । जिससे पुनः गर्दन ऊँची
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