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विजय प्राप्त करना और वह भी हजारों लाखों को मार कर जीतना - यह कैसी विजय है ? मैं ऐसी विजय को नहीं मानता हुँ । बाह्य शत्रुओं को जीतनें के बजाय यदि तुम अपने अभयंतर क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, ईर्ष्या - बैर, वैमनस्य, काम संज्ञा आदि सैंकडों शत्रुओं जो तुम्हारे अन्दर बैठे हुए हैं, जिनकी पकड़ तुम पर है, जो तुम्हें सताते हैं, परेशान करते हैं, जिनकी दासता - परतंत्रता के तुम शिकार हो । ऐसे जो तुम्हारे घोर और प्रचंड शत्रु हैं, उनमें से किसी एक पर भी तुम विजय प्राप्त कर लो, तो मैं तुम्हे नमस्कार करू - अन्यथा नहीं । बाह्य शत्रुओं क जीतने वाले राजा तो इस अवनि पर अनेक हैं, मैं नित्य कितनों को नमस्कार करने जाऊँ ? बोलो सम्राट ! तुम अपने मन के सम्राट हो या मात्र इस धरती के ही सम्राट हो ? यदि आत्मा के आंतरिक शत्रुओं में से तुम एक अथवा दो परभी विजय प्राप्त कर सके हो और तुम अपने स्वयं के मन के स्वामी- सम्राट बन सके हो, तो मैं तुम्हें नमस्कार करूँ । अपने अनेक रिपुओं में से क्या तुम एक क्रोध को भी जीत सके हो ? नहीं.... तब तो तुम्हे नमन करने के बजाय तो जिन्होंने सभी अर्न्तशत्रुओं को जीत लिया हो उन्हें ही नमन करने में मुझे लाभ हैं।
इतना सुनने के साथ ही सिकन्दर की अक्ल ठिकाने आ गई । स्वस्थ होने के साथ ही वह हाथी की अंबाडी से नीचे उतरा और मुनि महात्मा का चरण स्पर्श किया तथा नमस्कार करके बोला- महात्माजी ! सचमुच मैं सच्चे सम्राट तो आप हो । काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, तृष्णा आसक्ति, राग-द्वेषिजो हमारे स्वयं के अर्न्तशत्रु हैं, उनके शिकंजे में मैं फँसा हुआ हूँ, परतंत्र हूँ । उनकी अधीनता भोगता हुआ मैं पराधीन-परतंत्र हूँ । इन कषायों से दबा हुआ हूँ और वास्तव में ये ही हनन करने योग्य है । इन से दबी हुई अपनी आत्मा को मुक्त करना ही चाहिये |
राजा की बात सुनकर मुनि श्री ने समझाया राजन् ! इन आंतरशत्रुओं को जीतने अथवा उनका हनन करने के लिये बाह्य तीर - तलवारधारी सेना लेकर चढ़ाई करने की जरा भी आवश्कता नहीं रहती । इसके लिये सर्वस्व का त्याग करके ज्ञान ध्यान - तप त्यागादि की साधना करना ही आवश्यक है । तीर - तलवार के बल पर युद्धादि करके बाह्यजगत के शत्रुओं का हनन करने में हिंसादि अनेक पाप होते हैं, जिसके कारण पुनः हमारी आत्मा मलीन होती है । बाह्य जगत के शत्रुओं के हनन का कार्य तो आजीवन किया, जो कार्य नहीं किया वह अब करने की आवश्यकता है । वे अभ्यंतर कक्षा के आंतर शत्रु
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काम क्रोधादि विषय
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