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ही न कर पाए, लोटकर आने ही न पाए-इस प्रकार उनका हनन करना है ।
क्या हनन करने में हिसा की गंध नहीं आती ?
किसी का ऐसा भी कथन है कि हनन करने की क्रिया तो हिंसक क्रिया है, अतः ऐसे अर्थ वाली हन् धातु नवकार जैसे पवित्रतम मंत्र और अरिहंत जैसे सर्वश्रेष्ठ भगवान के साथ जोडने में दोष लगता है । अत्यंत सूक्ष्म अहिंसा-जीवदया के प्ररूपक - ऐसे अरिहंत भगवान जो स्वयं सर्वज्ञ बनकर समवसरण में विराजमान होकर जगत को सूक्ष्म भी हिंसा न करने तथा दया-पालन का उपदेश देते हैं - ऐसे अरिहंत भगवान स्वयं हनन करने अर्थात् हिंसा करने का कार्य करते है ? क्या यह उनके लिए उपयुक्त है ? ऐसा कार्य अरिहंत को तो कदापि शोभा नहीं देता।
इस प्रश्न के उत्तर स्पष्ट और सीधे ही है कि सर्व प्रथम हनन करने की क्रिया में इतना तो सोचो कि किसका हनन करना है ? हंत से पूर्व अरि शब्द का. प्रयोग हुआ है । तो किसका हनन करना है ? प्रश्न से सीधी ध्वनि ‘अरि' पर ही जाती है । अरिओं का ही हनन करना है | क्या अरिहंताणं में अरिओं का अर्थ किसी व्यक्ति, राजा अथवा मंत्री आदि के लिए किया गया है ? नहीं, यह तो बात ही नहीं है । यहाँ अरिओं का अर्थ आत्मा पर लगे हुए राग-द्वेषादि आत्म-रिपुओं से लिया गया है । क्या ये राग-द्वेषादि सजीव है - चेतन है या निर्जीव - जड़ है? हम पूर्व में ही कह चुके हैं कि अरि शब्द से अजीव तत्त्व लिया गया है । अजीव तत्त्व का स्वरूप और उसके भेदों का वर्णन पूर्व में हो चुका है । अजीव इस अजीव शब्द में प्रथम अरि ही जीव का निषेध करता है, फिर प्रश्न ही कहाँ रहा ? किसका हनन किया जाता है ? जीव का या अजीव का ? हनन क्रिया में हिंसा का दोष कब लगता हैं जब जीव हत्या होती हो तब ! जब कि यहाँ तो आत्मा के साथ जो कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का समूह चिपक कर कर्मपिंडरूप बन चुका है, वह जो आत्मा के गुणों का हनन, दमन कर रहा है, जो कर्म आत्म गुणों को प्रच्छन कर लेता है, आत्मा को उसके मूल शुद्ध स्वरूप में प्रकट नहीं होने देता है, वह कर्म ही आत्मा का अरि है - शत्रु है और उसके हनन की ही यहाँ बात है । कर्म तो जड़ है अतः उसके हनने की क्रिया में हिंसा की गंध आने का प्रश्न ही नहीं उठता है । _ 'हन्' धातु से हंत हनन करने के अर्थ में जो बना है वह क्षय-नाश का सूचक है। अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अरिहंत में अरिओं का हंत करना
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