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उपादेय बनाकर चरितार्थ करने की प्रक्रिया को धर्म कहते हैं ।
इस व्याख्या के आधार पर ही अरिहंत शब्द की रचना है । दर्शन शास्त्र ने अरि के रूप में अजीव पुद्गल परमाणुओं का स्वरूप बताया । उन में भी कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु जो अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप में होते है, वे जीवात्मा की राग-द्वेष की प्रवृत्ति से आकृष्ट होकर आत्म प्रदेशों के साथ चिपक जाते हैं और कर्म के रूप में पहचाने जाते हैं । ये कार्मण वर्गणा के पुद्गल जो कर्म पिंड के रूप में जाने जाते है उनका हनन करना अर्थात् आत्म प्रदेशों में से पुनः बाहर निकाल देने को 'हंत' कहा है । उपर्युक्त व्याख्यानुसार आत्मा को कर्मरूपी अरिओं का जो ज्ञान हुआ उसे तुरन्त आचरण में डालने का कार्य 'हंत' की क्रिया से किया आर अन्त में इस के परिणाम स्वरूप आत्मा ने अरिहंत पद प्राप्त किया । दर्शन शास्त्र इस पदार्थ का रूप-स्वरूप ज्ञानयोग से देता है अतः वह ज्ञान प्रधान है, जब कि धर्म उसका आचरण करके उसे चरितार्थ करता है अतः धर्म क्रिया-प्रधान है - क्रियात्मक है । यह सिद्धान्त नवकार के प्रथम पद अरिहंत में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । अरि का ज्ञान और हंत की क्रिया अर्थात् ज्ञान-क्रियात्मक स्वरूप प्रदर्शित करने वाला प्रथम पद अरिहंत है । अरि का ज्ञान करवाने का कार्य दर्शनशास्त्र का है और उन अरिओं, रिपुओं का हनन - नाश करवाने का कार्य क्रियात्मक होने से धर्म का है । इस प्रकार इस एक अरिहंत पद से धर्म और दर्शन दोनों का स्वरूप निश्चित होता है ।
__ दोनों में से एक को स्वीकार करो और दूसरे को स्वीकार न करो तो साधना सिद्ध नहीं होती, बल्कि पंगु रह जाती है । अरि का ज्ञान हो । परन्तु हनन की क्रिया न हो तो अरिहंत बनना सर्वथा असंभव है | हनन की क्रिया तो चलती ही रहे पर अरि का ज्ञान ही न हो तो फिर किसका हनन करना ? क्या करना ? आभ्यंतर अरिओं के बजाय किसी अन्य का हनन करते रहे तो परिणाम क्या निकलेगा ? उस स्थिति में भी अरिहंत तो बनना असंभव ही है । अतः अकले ज्ञान से भी नहीं चलता और न अकेली क्रिया से ही चलता हैं । अरिहंत पद इस बात का सूचक है कि ज्ञान और क्रिया दोनों साथ होने पर ही कार्यसिद्धि संभव है, अन्यथा नहीं । तभी अरिहंत बनना संभव है अन्यथा नहीं । ज्ञान रहित क्रिया अंधी है और क्रिया विहीन ज्ञान पंगु है । ऐसे में दावानल लगा हो तो एकांतवादी अथवा एकांत पक्षी कदापि लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता है । वह कभी भी अरिहंत नही बन सकता । ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः (प्राकृत में नाण किरीया हिं मोक्खो)
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