SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माना गया है, क्यों कि सभी पदार्थ पुद्गल जन्य पौद्गलिक है । इन पुद्गलों के छोटे-बड़े प्रकारों के अनुसार ४ भेद बनते हैं १ स्कंध, २ देश, ३ प्रदेश और ४ परमाणु । एक अखंड पदार्थ को स्कंध कहते हैं । उसी का छोटा सा भाग देश कहलाता है और अत्यन्त सूक्ष्म में सूक्ष्म-छोटे से छोटा भाग जो देश के साथ संलग्न होता है वहाँ तक प्रदेश कहलाता है और देश से अलग पड़ा सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाग परमाणु कहलाता है । अणु कहो अथवा परमाणु कहो । बात एक ही है । परमाणु में परम + अणु - परम विशेषण आगे लगाया गया है । दोनों ही शब्द समानार्थक हैं । परमाणु अविभाज्य, अदाय, अकाट्य द्यछेअ, अभेद्य, अरूपी पदार्थ होता है । परमाणु का अविभाज्य कहा इसका अर्थ है कि इसका पुनः विभाजनशक्य ही नही है । इसके दो भाग करना संभव ही नहीं है । एक बार विज्ञान ऐसा मानता था कि परमाणु अविभाज्य है । उसका विभाजन नहीं होता, जब कि आज वर्तमान विज्ञान परमाणु को भी विभाज्य मानता है । परमाणु का विस्फोट किया और विभाजन करके परमाणु शक्ति को खड़ा करते हैं । इस प्रकार विज्ञान परिवर्तनशील है, जब कि धर्म के सिद्धान्त - तत्त्व स्वरूप अपरिवर्तन शील है | Science is ever changeable while Religion is never changeable धर्मक्षेत्र में तत्त्व के सिद्धान्त सदैव शाश्वत रहे हैं, वे कभी भी बदले नहीं और भविष्य में भी बदलने वाले नहीं है, क्यों कि वे सर्वज्ञ - अनंतज्ञानियों के वचन हैं । सर्वज्ञ ज्ञानी भगवंत ने अपने त्रैकालिक अनंतज्ञान से वस्तु का त्रिकाल स्वरूप देखकर प्ररुपणा की है । उसमें भूतकाल में भी परिवर्तन नहीं किया और न आज भी परिवर्तन करते हैं । इसी प्रकार भविष्य काल में भी कभी भी परिवर्तन करने वाले ही नहीं । अतः धर्मक्षेत्र में सिद्धान्तका त्रिकाल शाश्वत स्वरूप है । धर्म का अर्थ मात्र क्रिया कांड ही नहीं, परन्तु तत्त्वों का जो शुद्ध स्वरूप है जो ज्ञान है उसका आचरण उसकी क्रियान्विति ही धर्म है । अर्थात् ज्ञानयोग में पदार्थ ज्ञान स्वरूप में हैं, परन्तु उन २ तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान हो जाने पश्चात् उन्हीं का आचारण करना, पदार्थ स्वरूप ज्ञान योग में जो सैद्धान्तिक रूप में Theoritical रहा है उसे जीवन में उतारकर Practical स्वरूप में प्रयोगात्मकरूप से आचरण कर चरितार्थ करना धर्म कहलाता है । अतः इस प्रकार धर्म और दर्शन अलग पड़ जाते है । दर्शन अर्थात् तत्त्वज्ञान दर्शन पदार्थो का जो दार्शनिक स्वरूप निश्चित् करता है तदनुसार ज्ञेयस्वरूप में जानकर फिर उसका जीवन में आचरण करना - 337
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy