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अरिहंत शब्द में मुख्य तत्वों की सिद्धि :
अरि + हंत = अरिहंत अजीव तत्त्व, - जीव तत्त्व
अरि को अजीव तत्त्व कहा गया है, क्यों कि जीव पर अजीव तत्त्व के पुद्गल के घर से विविध प्रकार की वर्गणाओं में से कार्मण वर्गणा जीवात्मा पर आकर चिपकती है - वही कर्मस्वरूप है । वे कर्म ही राग - द्वेष - क्रोधादि से निर्मित होते हैं । इस प्रकार जीवात्मा अपनी हनन क्रिया जारी रखती है । हंत से हनन करने वाली, हर्ता जीवात्मा ही सिद्धं बनती है, क्यों कि पौद्गलिक कर्म केवल जीवात्मा को ही लगते हैं ।
किसी भी अजीव तत्त्व को कर्म बंधन नहीं होता है, क्यों कि राग-द्वेषादि की उसकी प्रवृत्ति ही नहीं होती । राग-द्वेषादि भी मात्र जीव की ही प्रवृत्ति है । अतः यहाँ ‘अरिहंत' शब्द से 'जीव' और 'अजीव' तत्त्व की सम्पूर्ण सिद्धि होती. है और इस जगत में Original Substance मूलभूत द्रव्यों के रूप में मात्र इन दो तत्त्वों का ही समावेश होता है। इन दो के सिवाय तीसरा द्रव्य इस जगत में अपना अस्तित्व रखता ही नहीं है । अतः संपूर्ण ब्रह्मांड के समस्त द्रव्य संक्षिप्त रूप से इन दो द्रव्यों में ही समाहित हो गए हैं ।
अजीव तत्त्व के भेद
अरूपी
' रूपी
धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय काल पुद्गलास्तिकाय स्कंध देश प्रदेश स्कंध देश प्रदेश स्कंध देश प्रदेश स्कंध देश प्रदेश परमाणु
३ + . ३ + १ + ४ = १४ औदारिक वैक्रिय आहारक तेजस् श्वासो भाषा मन कार्मण
अजीव तत्त्व की यह संपूर्ण तालिका है । सभी भेंदों का इसमें समावेश हो गया है । जैन दर्शन की यही विशेषता है कि अजीव जैसे जड़ पदार्थ की भी इसने स्वतंत्र संपूर्ण विवक्षा की है, विज्ञान ने प्रारंभ में ५०-६० द्रव्य, फिर ६० द्रव्य, तत्पश्चात् १०४ द्रव्य और बाद मे १११ द्रव्य इस प्रकार अलग अलग संख्या में द्रव्य जगत को बताए हैं, जब कि जैन दर्शन ने एक मात्र अजीव तत्त्व में ही उनकी गणना कर बताई है और मात्र पुद्गल के भेदों के रूप में सभी पदार्थों को
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