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जगत का मालिक-स्वामी । जैन दर्शन परमेश्वर शब्द का प्रयोग करके उन्हें सम्पूर्ण जगत के स्वामी कहता है । भगवान के नामों के बाद स्वामी इस अर्थ में जोड़ने की प्रणाली है - उदाहरणार्थ महावीरस्वामी, वासुपूज्यस्वामी, मुनिसुव्रतस्वामी, आदि तीर्थंकरों के नाम के साथ स्वामी शब्द इस अर्थ में जोड़कर भाषा का व्यवहार होता है । इसी प्रकार नाथ, प्रभु आदि शब्द भी जोड़े जाते हैं । जैन दर्शन ने जो ईश्वर शब्द स्वीकार किया है, वह भी इस अर्थ में मान्य रखा है, फिर भी अधिक प्रयोग का व्यवहार नहीं रखा है । ऐसा प्रयोग नाम मात्र ही मिलेगा क्यों कि अन्य दर्शन ईश्वर को जगत् कर्ता, सृष्टि रचयिता के अर्थ में अधिक से अधिक रूढ करते गए - इस अर्थ का ही इसे पर्यायवाची बनाते गए अतः यदि जैन भी इसी शब्द का प्रयोग अन्य सभी की भाँति करें तो वे भी इसी अर्थ के पर्याय में चले जाएँ, स्वीकार्य हो जाएँ । इसी लिये सिद्धान्त की रक्षा हेतु उन्होंने इस शब्द को महत्व न देकर इसके स्थान पर अधिक महत्वपूर्ण अन्य शब्दों का प्रचलन अधिक रखा है । इन में भी ‘अरिहंत' 'वीतराग' तीर्थंकर शब्द जैन शासन में ही प्रचलित हैं - अन्यत्र कहीं भी नहीं है । अतः जैनों के एक प्रकार के विशिष्ट कक्षा के शब्द कहलाते हैं । जैन दर्शन के विशिष्ट पारिभाषिक शब्द हैं जिनका अर्थ भी विशिष्ट ही होता हैं।
'अरिहंत' शब्द ही एक प्रकार से अद्भुत शब्द है । इसी का प्रयोग 'नवकार महामंत्र' में किया गया है । बड़े ही गंभीर अर्थ से पूर्ण यह शब्द है । अर्थ की दृष्टि से इस शब्द को देखें
___ अरि + हंत = अरिहंत - अरि + आत्म शत्रु और हंत = हनन करने वाला ।
आत्म शत्रुओं का हनन करने वाला ईश्वर है . 'अरि' शब्द शत्रु, रिपु के अर्थ में प्रयुक्त होता है और हंत - हन् धातुं हनन करने के अर्थ में है । अरिगण कौन ? दो प्रकार के शत्रु होते हैं (१) बाह्य अर्थात् हमारे जन्म जात शत्रु क्रोध - कषायादि से बनाए गए बाहरी शत्रु और (२) अभ्यंतर कक्षा के आंतरिक शत्रु - आत्म शत्रु । आत्मा के शत्रुओं में - क्रोध, मान, माया, लोभ, राग - द्वेष, कामादि सभी आत्मा के आन्तरिक शत्रु हैं । इनका हनन करने वाले । हनन करके नाश करने वाले अर्थात् इन पर विजय प्राप्त करने वाले अरिहंत भगवान कहलाते
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